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________________ आत्मक्रांति का प्रथम सूत्र : अवैर पद पर है, कोई पद पर नहीं है। कोई कम्युनिस्ट पार्टी में है, कोई कम्युनिस्ट पार्टी में नहीं है। जो पद पर है, वह इतना शक्तिशाली हो गया है जितना धनी पुराने दिनों में कभी भी न था। और जो पद पर नहीं है, वह इतना निर्बल हो गया है जितना भूखा, भिखमंगा, गरीब कभी नहीं था। धनी के हाथ में इतनी ताकत कभी नहीं थी जितनी रूस में पदाधिकारी के हाथ में हैं। संघर्ष वहीं का वहीं खड़ा है। भेद वहीं का वहीं खड़ा है। वर्ग नए बन गए, पुराने मिटे तो। कुछ ऐसा लगता है, आदमी बीमारी बदलता जाता है। क्रांतियों के नाम से केवल बीमारी बदलती है, कुछ भी बदलता नहीं। ऊपर के ढंग बदलते हैं, भीतर का रोग जारी रहता है। सब क्रांतियां व्यर्थ हो गयी हैं; सिर्फ बुद्ध की एक क्रांति अभी भी सार्थकता रखती है। बुद्ध कहते हैं, तुम्हारे मन में ही कारण है। बाहर खोजने गए, पहला कदम ही गलत पड़ गया। अब तुम ठीक कभी न हो पाओगे। तुम्हारे मन में ही दुख का कारण है। जब भी तुम किसी को दुख देना चाहते हो, तुम दुख पाओगे। जब भी तुम दुख देने की आकांक्षा से भरे किसी विचार के पीछे जाते हो, तुम दुख के बीज बो रहे हो। दूसरे को दुख मिलेगा या नहीं मिलेगा, तुम्हें दुख जरूर मिलेगा। तुम अगर आज दुख पा रहे हो, तो बुद्ध कहते हैं, कल बोए बीजों का फल है। और अगर कल तुम चाहते हो दुख न पाओ, तो आज कृपा करना, आज बीज मत बोना। __- 'यदि कोई दोषयुक्त मन से बोलता है, सोचता है, व्यवहार करता है, या वैसे कर्म करता है, तो दुख उसका अनुसरण वैसे ही करता है जैसे गाड़ी जाती है तो बैलों के पीछे चाक चले आते हैं।' ___तुम्हारे मन में अगर किसी को भी दुख देने का जरा सा भी भाव है, तो तुम अपने लिए बीज बो रहे हो। क्योंकि तुम्हारे मन में जो दुख देने का बीज है, वह तुम्हारे ही मन की भूमि में गिरेगा, किसी दूसरे के मन की भूमि में नहीं गिर सकता। बीज तो तुम्हारे भीतर है, वृक्ष भी तुम्हारे भीतर ही होगा। फल भी तुम्हीं भोगोगे। . अगर बहुत गौर से देखा जाए, तो जब तुम दूसरे को दुख देना चाहते हो, तब तुमने अपने को दुख देना शुरू कर ही दिया। तुम दुखी होने शुरू हो ही गए। तुम क्रोधित हो, किसी पर क्रोध करके उसे नष्ट करना चाहते हो; उसे तुम करोगे या नहीं, यह दूसरी बात है, लेकिन तुमने अपने को नष्ट करना शुरू कर दिया। बुद्ध कहते थे, क्रोध से बड़ी कोई मूढ़ता नहीं है। दूसरे के कसूर के लिए तुम अपने को दंड देते हो। एक आदमी ने तुम्हें गाली दी, कसूर उसका होगा, अब क्रोधित तुम हो रहे हो—दंड तुम अपने को दे रहे हो, कसूर उसका था। इससे ज्यादा मूढ़ता और क्या हो सकती है? उसने गाली दी, उसकी समस्या है; तुम क्यों बीच में आते हो? तुम गाली मत लो। लेने पर निर्भर है। लेना आवश्यक नहीं है। आप मझे गाली दे सकते हैं, लेकिन लेने पर थोड़े ही मजबूर कर सकते हैं। देना आपके 19
SR No.002378
Book TitleDhammapada 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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