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________________ देखा तो हर मुकाम तेरी रहगुजर में है खोज पर निकल जाएंगे। खोज भरे रखती है। अगर सच में ही यह घर उसका हुआ - फिर ? - रवींद्रनाथ की कविता बड़ी महत्वपूर्ण है। लिखा है कि आहिस्ता से सांकल छोड़ दी कि कहीं बज न जाए — भूल-चूक — कहीं वह द्वार खोल ही न दे ! जूते उतारकर हाथ में ले लिए कि कहीं सीढ़ियों से उतरते वक्त आवाज न हो जाए ! और फिर जो भागा हूं तो पीछे लौटकर नहीं देखा। अब फिर खोजता हूं, हालांकि मुझे उसका घर पता है। उस जगह को छोड़कर सब जगह खोजता हूं। वहां भर नहीं जाता, क्योंकि मुझे मालूम है। यह कहीं हालत तुम्हारी भी तो नहीं है ? जब मैं गौर से तुम्हारे भीतर देखता हूं तो पाता हूं, यही हालत तुम्हारी है। तुम्हें भी उसका घर पता है। तुम भाग खड़े हुए हो। वह घर तुम्हारे भीतर है। वहां तुम जाते ही नहीं, सब जगह तुम खोजते हो। वहां भर जाकर तुम ठिठकते हो, डरते हो । नहीं, कोई समस्या मत बनाओ। अगर ध्यान में रस आ गया, तो प्रेम अपने आप आ जाएगा। यही तो मैं तुमसे कह रहा हूं कि दो ढंग हैं । उनको दो ढंग भी कहना ठीक नहीं; वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ध्यान से चलो, तो प्रेम अपने आप आ जाता है। प्रेम से चलो, तो ध्यान अपने आप आ जाता है । और हर आदमी अलग-अलग ढंग से बना है। मुहब्बत के लिए कुछ खास दिल मखसूस होते हैं वो नग्मा है जो हर साज पर गाया नहीं जाता यह गीत है मुहब्बत का, जो किन्हीं साजों पर गाया जाता है। सभी साजों पर नहीं गाया जाता। लेकिन यही बात ध्यान के लिए भी सच है । उसके लिए भी कुछ खास दिल मखसूस होते हैं। वह भी : ये वो नग्मा है जो हर साज पर गाया नहीं जाता मीरा के साज पर प्रेम का गीत जमा । बुद्ध के साज पर ध्यान का गीत जमा । माया-यह असली बात है । भरपूर गाया । समग्रता से गाया। ध्यान को गाया या प्रेम को गाया - ये पंडित सोचते रहें । गा लिया ! गीत अनगाया न रहा! जो छिपा था वह प्रगट हो गया! जो बंद था कली में वह फूल बना ! वह जो बीज में दबा था, चांद-तारों से उसने बात की ! खुले आकाश में गंध फेंकी ! दूर-दूर तक संदेश दिए ! लुट गया ! परिपूर्ण हुआ ! तुम कौन सा गाओ, इसका बहुत सवाल नहीं है। और ध्यान रखना, गीत तुम अपना ही गा सकोगे; दूसरे का गीत तुम कैसे गाओगे ? यही तो मैं सतत तुम्हारे सिर पर हथौड़ी की तरह चोट मारता रहता हूं कि गीत तुम अपना ही गा सकोगे, किसी और का नहीं । उधार भी गीत गाकर कहीं तुम गायक बन सकोगे ? हां, मीरा की नकल करके अगर नाच लिए और भीतर कोई प्रेम का रस जगता ही न था, तो 233
SR No.002378
Book TitleDhammapada 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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