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________________ एस धम्मो सनंतनो तुम भी इतने प्रेम से भर जाओ कि तुम्हारे प्राण कहने लगें कि नहीं, अब मत मार; हे परमात्मा, अब मत मारना ! तब वह मारेगा, कि तभी तो दंड हो सकता है। नहीं तो नियम... । यह बात जंची। पर उसने कहा, हीरे-जवाहरात मैंने कभी खरीदे नहीं । धर्मगुरु ने कहा, क्या हर्ज है, पत्नी तो मर ही जाएगी, तुम बेच देना । थोड़ा लाभ ही भला हो जाए, नुकसान तो क्या होगा ! चीजों के दाम तो रोज बढ़ते ही जाते हैं। यह बात जंची। वह गया। उसने हीरे-जवाहरात खरीदे । साड़ियां खरीदीं बहुमूल्य । कभी खरीदकर घर लाया न था । पत्नी तो हैरान हो गयी कि इसमें ऐसा रूपांतरण हुआ। निश्चित ही धर्मगुरु की कृपा से हुआ होगा। मंदिर गया, इसीलिए हुआ होगा । उसने भी पहली दफा उसे प्रेम से देखा । और पत्नी उसे इतना प्रेम करने लगी कि उस कंजूस को भी पहली दफा एहसास हुआ कि यह पत्नी तो बड़ी अनूठी है । मैं नाहक ही इसके मरने की प्रार्थना करता था । तब वह डरा । अब उसके मन में यह होने लगा कि कहीं मर न जाए। और तीन महीने करीब होने के पास आ रहे थे। और पत्नी बीमार पड़ गयी । तो वह घबड़ाया हुआ पहुंचा धर्मगुरु के पास । उसने कहा, यह तो मुसीबत हो गयी । नियम काम करता मालूम पड़ रहा है; पत्नी बीमार पड़ गयी। अब कैसे बचाएं उसे ? धर्मगुरु ने कहा कि वह जो दस लाख दान दिया था, वह दान दे दो। अब तो बचने का और कोई उपाय नहीं । 1 जिनको तुम मंदिर कह रहे हो, वे तुम्हारी ही दुकान के आसपास बड़ी दुकानें हैं। वहां भी व्यापार के वही नियम काम कर रहे हैं । तुम्हारे धर्मगुरु तुमसे भिन्न नहीं हैं। हो भी नहीं सकते । नहीं तो तुम्हारे धर्मगुरु कैसे होंगे ? तुम्हारे धर्मगुरु होने के लिए तुम्हारे जैसा ही होना जरूरी है। तुम्हारा ही गणित, तुम्हारा ही हिसाब, तुम्हारे ही मन का व्यवसाय । तुम्हारा मंदिर तुम्हारे जैसा है। ध्यान रखना, तुम्हारा मंदिर तुम्हारा है, परमात्मा का नहीं । तुमने ही बनाया है । और तुमने जो मूर्ति स्थापित की है, वह तुम्हारी ही मूर्ति होगी । परमात्मा की तो मूर्ति का तुम्हें पता भी कहां है ! और तुम जिस मूर्ति के सामने झुके हो, वह अपनी ही धारणाओं के सामने झुकना है। परमात्मा की कोई मूर्ति बनानी जरूरी नहीं है, क्योंकि वह तो तुममें मूर्तिमान हुआ है। तुम्हें कहीं बाहर झुकने का सवाल नहीं है, भीतर झुकने की कला आ जाए। ध्यान रखना, किसी के सामने भी झुकने का सवाल नहीं है। बस झुकने की कला आ जाए; झुकना तुम्हारा स्वभाव बन जाए। जिस दिन भी तुम भीतर झुकोगे, तुम पाओगे मंदिर के सामने खड़े हो । जिस दिन भी भीतर तुम्हारी अकड़ टूटेगी, अहंकार गिरेगा, तुम पाओगे यह चिन्मय मंदिर तो सदा से भीतर था । मैं मृण्मय मंदिरों में खोजता था, आदमी के बनाए घरों में पुकार रहा था, और जिसे मैं खोज रहा था वह मेरे भीतर सदा मौजूद था। ढूंढ़ता फिरता हूं ऐ इकबाल अपने आपको 206
SR No.002378
Book TitleDhammapada 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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