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प्रेम है महामृत्यु
अनुभव करोगे, क्योंकि उसके बिना कमल न हो सकता। और जिस दिन तुम कीचड़ को भी धन्यवाद दे सको, उसी दिन मैं तुम्हें कहूंगा तुम धार्मिक हो। जिस दिन संसार के प्रति भी तुम सिर झुका सको अनुग्रह के भाव से...क्योंकि इस संसार में अगर न घूमे होते, न भटके होते, तो परमात्मा से मिलने का कोई उपाय न था। यह भटकाव भी उसी की यात्रा का पड़ाव है।
दूसरा प्रश्न:
ध्यान और प्रेम के दो मार्ग आपने कहे हैं, पर होश, अवेयरनेस का तत्व दोनों मार्ग पर किस प्रकार संबंधित है, कृपा कर इसे समझाएं।
हो श तो दोनों मार्गों पर होगा ही, लेकिन होश की परिभाषा दोनों मार्गों पर
अलग-अलग होगी। होश तो होगा, लेकिन होश का स्वाद दोनों मार्गों पर बड़ा अलग-अलग होगा। स्वाद अलग होगा।
प्रेम के मार्ग पर होश बेहोशी जैसा होगा। ध्यान के मार्ग पर बेहोशी होश जैसी होगी। यह थोड़ा समझने में कठिन होगा, जटिल होगा।
प्रेम में एक मस्ती आती है, जैसे कोई शराब में डूबा हो। सारी दुनिया को लगता है वह बेहोश है-वह जो प्रेम का दीवाना है; लेकिन भीतर उसके होश का दीया जलता है। जितनी गहरी बेहोशी दुनिया को लगती है, उतना ही भीतर का दीया सजग होकर जलने लगता है।
रामकृष्ण के जीवन में ऐसा बहुत बार हुआ। वे प्रेम के पथिक थे और कभी-कभी उनकी समाधि लग जाती तो छह घंटे, बारह घंटे, अठारह घंटे, कभी-कभी छह दिन, सात दिन, दस दिन, वे बिलकुल बेहोश पड़े रहते। हाथ-पैर ऐसे अकड़ जाते जैसे मुर्दे के हों, सिर्फ श्वास धीमी-धीमी चलती रहती। उनके प्रेमी और भक्त बड़े परेशान हो जाते, कि वे अब लौटेंगे या नहीं। और प्रेमी और भक्त भी समझते कि यह तो बड़ी बेहोशी है। __लेकिन रामकृष्ण को जैसे ही होश आता— भक्तों की दृष्टि में, आसपास की भीड़ की दृष्टि में जैसे ही उन्हें होश आता, वे फिर चिल्लाते कि मां, यह बेहोशी मुझे नहीं चाहिए। जिसको भक्त कहते बेहोशी, उसको वे कहते होश। और जिसको भक्त कहते होश, वे उस होश में आते ही चिल्लाते कि मां, यह बेहोशी मुझे नहीं चाहिए। अब क्यों वापस इस बेहोशी में भेजती है! जब ऐसा होश सध गया था तो वापस वहीं बुला ले। बाहर से शरीर मुर्दे की तरह हो जाता था, और भीतर कोई
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