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एस धम्मो सनंतनो
परमात्मा से ।
'उत्थानशील, अप्रमाद से भरा, संयम और दम के द्वारा ऐसा द्वीप बना लेना चाहिए जिसे बाढ़ न डुबा सके।'
जिसे मौत न डुबा सके। ऐसा द्वीप बन जाता है। सहस्रार की ही चर्चा है। वहां तुम्हारी चेतना इकट्ठी होती चली जाती है। धीरे-धीरे शरीर से तुम अलग हो जाते हो। धीरे-धीरे चैतन्य ही तुम्हारी एकमात्र भावदशा रह जाती है, होश प्रगाढ़ हो जाता है। संगृहीभूत हो जाता है। सघन हो जाता है। तुम तब नीचे नहीं भटकते । बुद्ध ने इसको कहा है मेघ-समाधि। जैसे कि बादल ऊपर डोलता है। बरस जाए तो जमीन पर धाराएं बहती हैं। अन्यथा जल आकाश में भटकता है, ऊपर उठ जाता है, उत्थान हो जाता है।
जब कोई व्यक्ति अपनी जीवन-चेतना को शरीर से निरंतर अलग करता रहता है, तो धीरे-धीरे उसके मस्तिष्क में मेघ-समाधि का जन्म होता है। उसकी सारी चेतना एक मेघ की भांति उसके मस्तिष्क में समाहित हो जाती है । सारा शरीर नीचे पड़ा रह जाता है। वह आकाश में घूमते एक सफेद बादल की तरह हो जाता है । और जब प्राण वहां से निकलते हैं तो मृत्यु तुम्हें छू भी नहीं पाती। वहां से अमृत का द्वार है।
लेकिन तुम उस द्वार पर खड़े हो जहां सिर्फ आशाओं के आश्वासन हैं। तुम महाशंख के सामने प्रार्थनाएं कर रहे हो ।
कोई आया न आएगा लेकिन क्या करें गर न इंतजार करें
न कोई कभी आया वहां उस द्वार पर, न कोई कभी आएगा, लेकिन, क्या करें गर न इंतजार करें ! आदमी कहता है, क्या करें ? क्योंकि तुम्हें एक ही द्वारका है, वहीं तुम होना जानते हो । उत्थान करो चेतना का, जागो, खींचो अपने को ऊपर की तरफ, दृढ़ता, पराक्रम का, संयम का एक द्वीप बनाओ।
'दुर्बुद्धि लोग प्रमाद में लगते हैं, और बुद्धिमान पुरुष श्रेष्ठ धन की तरह अप्रमाद की रक्षा करते हैं ।'
लेकिन यह तभी संभव है जब तुम जिंदगी की असलियत को पहचान लो। इस जिंदगी की असलियत को पहचानते ही तुम्हारे कदम दूसरी जिंदगी की तरफ उठने शुरू हो जाते हैं।
'दुर्बुद्धि, मूढ़ लोग प्रमाद में लगते हैं।'
इससे बड़ी मूढ़ता और क्या हो सकती है कि जिस द्वार पर कभी कोई नहीं आया, वहीं तुम प्रतीक्षा किए बैठे हो । कब तक बैठे रहोगे ? कितने जन्मों से तुम बैठे रहे हो इसी कामवासना के द्वार पर । कब तक बैठे रहोगे? बहुत देर हो गयी । ऐसे ही बहुत देर हो गयी। अब जाग जाना चाहिए। कितनी बार मर चुके हो, फिर
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