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________________ एस धम्मो सनंतनो तो उन्होंने प्रयोग करके देखा पहले। उंगली काटी, तकलीफें दीं, सुइयां चुभायीं और उनसे कहा कि आप अपना...वे अपना गीता का पाठ करते रहे। कोई दर्द का उन्हें पता न चला। फिर ऑपरेशन भी किया गया। वह पहला ऑपरेशन था पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में, जिसमें किसी तरह के मादक-द्रव्य का कोई प्रयोग नहीं किया गया। काशी-नरेश पूरे होश में रहे। ऑपरेशन हुआ। डाक्टर तो भरोसा न कर सके। जैसे कि लाश पड़ी हो सामने, जिंदा आदमी न हो, मुर्दा आदमी हो। __ ऑपरेशन के बाद उन्होंने पूछा कि यह तो चमत्कार है, आपने किया क्या? उन्होंने कहा, मैंने कुछ किया नहीं। मैं सिर्फ होश सम्हाले रखा। और गीता जब मैं पढ़ता हूं, इसे जन्मभर से पढ़ रहा हूं, और जब मैं गीता पढ़ता हूं...और यही पाठ का अर्थ होता है। पाठ का अर्थ ऐसा नहीं होता कि बैठे हैं, नींद आ रही, तंद्रा आ रही, दोहराए चलें जा रहे हैं; मक्खी उड़ रहीं और गीता पढ़ रहे हैं। पाठ का यह मतलब नहीं होता। पाठ का अर्थ होता है बड़ी सजगता से, कि गीता ही रह जाए, उतने ही शब्द रह जाएं, सारा संसार खो जाए...तो उन्होंने कहा, गीता के पाठ से मुझे होश बनता है, जागृति आती है। बस, उसका मैं पाठ जब तक करता रहूं तब तक मुझसे भूल-चूक नहीं होती। तो मैं उसे दोहराता रहूं तो फिर शरीर मुझसे अलग है। ना हन्यते हन्यमाने शरीरे। तब मैं जानता हूं कि शरीर को काटो, मारो, तो भी तुम मुझे नहीं मार सकते। नैनं छिंदंति शस्त्राणि। तुम छेदो शस्त्रों से, तुम मुझे नहीं छेद सकते। बस इतनी मुझे याद बनी रही, उतना काफी था; मैं शरीर नहीं हूं। हां, अगर मैं गीता न पढ़ता होता तो भूल-चूक हो सकती थी। अभी मेरा होश इतना नहीं है कि सहारे के बिना सध जाए। पाठ का यही अर्थ होता है। पाठ का अर्थ अध्ययन नहीं है, पाठ का अर्थ गीता को दोहराना नहीं है, पाठ का बड़ा बहुमूल्य अर्थ है। पाठ का अर्थ है, गीता को मस्तिष्क से नहीं पढ़ना, गीता को बोध से पढ़ना। और गीता पढ़ते वक्त गीता जो कह रही है उसके बोध को सम्हालना। निरंतर-निरंतर अभ्यास करने से, बोध सम्हल जाता है। पर काशी-नरेश को भी डर था, अगर सहारा न लें तो बोध शायद खो जाए। बुद्ध ने तो कहा है कि शास्त्र का भी सहारा न लेना, सिर्फ श्वास का सहारा लेना। क्योंकि शास्त्र भी जरा दूर है। श्वास भीतर जाए, देखना; श्वास बाहर जाए, देखना। श्वास की जो परिक्रमा चल रही है, श्वास की जो माला चल रही है, उसे देखना। इसको बुद्ध ने अनापानसतीयोग कहा। श्वास का भीतर आना, बाहर जाना, इसे तुम देखते रहना। श्वास भीतर जाए, तो तुम देखते हुए भीतर जाना। श्वास नासापुटों को छुए तो तुम वहां मौजूद रहना, गैर-मौजूदगी में न छुए। तुम होशपूर्वक देखना कि श्वास ने नासापुटों को छुआ। ऐसा भीतर कहने की जरूरत नहीं है, ऐसा साक्षात्कार करना। फिर श्वास भीतर चली, श्वास के रथ की यात्रा शुरू हुई, वह तुम्हारे फेफड़ों में गयी, और गहरी गयी, उसने तुम्हारे नाभिस्थल को ऊपर उठाया, 168
SR No.002378
Book TitleDhammapada 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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