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जागकर जीना अमृत में जीना है
हो जाती है, लेकिन भीतर एक दीया होश का जलता ही रहता है। अडिग, अकंप। उस दीए को ही सम्हाल लेना अप्रमाद है।
और नींद में तो मुश्किल होगा सम्हालना अभी। पहले तो जिसे तुम जागना कहते हो उसमें सम्हालो। जागने में सम्हल जाए, तो संभव है कभी नींद में भी सम्हल जाए। अभी तो जागने में भी सोए हुए हो। अभी तो नींद में जागने की बात ही फिजूल है। अभी तो जागना भी नींद जैसा है। अभी तो नींद को जागने जैसा बनाना बड़ा मुश्किल है। पहले जागने को ही वास्तविक जागना बनाओ। जिसे तुम अभी जागना कहते हो वह सिर्फ आंख का खुलना है, भीतर तो नींद बनी ही रहती है। वह कहीं जाती नहीं। और तुम जरा आंख बंद करके कुर्सी पर आराम से बैठ जाओ, तुम पाओगे, सपनों का सिलसिला शुरू। आंख खुली थी, बाहर के चित्रों में उलझ गए, तो भीतर के सपने दिखायी नहीं पड़ते। आंख बंद करो, दिवास्वप्न शुरू हो जाते हैं। सपनों का तारतम्य लगा है, सिलसिला लगा है।
तुम्हारा जागरण नाममात्र को जागरण है। बुद्धों का जागरण ही जागरण है। क्योंकि जो जागरण नींद में भी न टिके, वह जागरण क्या? कहते हैं, मित्र वही है जो संकट में काम जाए। जागरण वही है जो नींद में काम आए। वह उसकी कसौटी है। नींद जिसको मिटा दे उसको जागरण कहना ही मत। वह नाममात्र का जागरण था।
'अप्रमाद अमृत का पथ है और प्रमाद मृत्यु का। अप्रमादी नहीं मरते; लेकिन प्रमादी तो मृतवत ही हैं।'
अप्रमादी नहीं मरते हैं। बुद्धपुरुष कभी नहीं मरते हैं। मर नहीं सकते। मरते तो तुम भी नहीं हो, लेकिन इस सत्य का तुम्हें पता नहीं है। तुम मान लेते हो कि मर गए। तुम्हारी मान्यता ही सारी बात है। बुद्धपुरुषों में और तुममें मान्यता का भेद है। तथ्य का नहीं, सत्य का नहीं, धारणा का। तुम मान लेते हो कि मर गए। और जब तुम मान लेते हो कि मर गए, तो मर गए। ___ मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक सुबह उठा और उसने अपनी पत्नी को कहा कि सुनो, मैं मर चुका। रात मर गया। सपना देखा था, लेकिन इतना प्रगाढ़ था सपना कि उसे भरोसा आ गया। पत्नी ने कहा, पागल हुए हो, भले-चंगे बोल रहे हो, कहीं मरों ने खबर दी कि मर गए? मर गए तो मर गए। तुम बोल रहे हो। नसरुद्दीन ने कहा, मैं कैसे मानूं? मुझे तो पक्का भरोसा हो गया है कि मैं मर गया हूं। अब एक मुसीबत खड़ी हो गयी! बहुत समझाया, लेकिन वह माने न। वह कहे मैं और तुम्हारी मानूं? जब कि मुझे पक्का अनुभव हो रहा है कि मैं मर चुका हूं।
उसे एक मनोवैज्ञानिक के पास ले जाया गया। मनोवैज्ञानिक भी परेशान हुआ। ऐसा कोई केस पहले आया भी नहीं था कि जिंदा आदमी और कहे कि मैं मर गया हूं। पागल उसने बहुत देखे थे, पागल भी ऐसा नहीं कहते; वे भी मानते हैं कि जिंदा हैं। उसने बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन वह माने न। तो उसने सोचा कि
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