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________________ एस धम्मो सनंतनो सांसारिक लोगों को संन्यासियों का दिमाग सदा से खराब मालूम पड़ा है। वह उनकी आत्मरक्षा की दृष्टि है। अगर संन्यासी ठीक है, तो फिर तुम पागल हो। तो बेहतर यही है कि संन्यासी पागल है, ऐसा मानकर चलो। इससे कम से कम अपनी सुरक्षा होती है। फिर तुम्हारी भीड़ है। इसलिए तुम जो कहते हो वह भीड़ का वचन है। भीड़ के वचन झूठे हों तो भी सच मालूम होते हैं। __ लोग हंसने लगे। उन्होंने कहा, हमें पहले से ही शक था कि तू पागल है। अब अगर सुई घर के भीतर गिरी है, तो बाहर किसलिए खोज रही है? राबिया ने कहा, भीतर अंधेरा है, और मैं गरीब हूं, दीया भी मेरे पास नहीं। बाहर खोजती हूं क्योंकि बाहर थोड़ी रोशनी है अभी सूरज की। और देर मत करो, साथ दो, खोजो, नहीं तो जल्दी सूरज भी डूब जाएगा, बाहर भी खोजना मुश्किल हो जाएगा। उन्होंने कहा कि पागल औरत! रोशनी बाहर है यह हम समझे; लेकिन जब सुई बाहर गुमी ही न हो तो रोशनी क्या करेगी? रोशनी सुई थोड़े ही पैदा कर सकती है? तो राबिया ने कहा, तुम्हीं बताओ मैं क्या करूं? उन्होंने कहा, यह भी कोई पूछने की बात है? कहीं से भी दीया ले आओ, घर में दीया ले जाओ, या सुबह तक ठहरो, सुबह जब सूरज उगेगा और घर में रोशनी आएगी तब खोज लेना। मगर खोजना तो वहीं होगा जहां खोया है। राबिया हंसने लगी। उसने कहा कि तुम मुझे पागल समझते हो, लेकिन मैंने वही किया जो तुम कर रहे हो। आनंद तुम खोजते हो बाहर, परमात्मा को भी तुम जब खोजते हो तो बाहर-कभी मंदिर में, कभी मस्जिद में। .. न हरम में है न दैर में हम तो दोनों जगह पुकार आए मस्जिद के सामने भी पुकारा, मंदिर के सामने भी पुकारा, कहीं पाया नहीं। हम तो दोनों जगह पुकार आए मगर जब आदमी खोजता है तो बाहर ही खोजता है, बिना यह पूछे कि खोया कहां है। तुमने परमात्मा को खोया कहां? कब खोया? किस जगह खोया? सुई हो या परमात्मा, कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन यही घटना घटी है। खोया भीतर है, खोजते बाहर हो। क्यों खोजते हो बाहर? क्योंकि इंद्रियां बाहर खुलती हैं, इंद्रियों की रोशनी बाहर पड़ती है। आंख बाहर खुलती है, भीतर नहीं। हाथ बाहर फैलते हैं, भीतर नहीं। कान बाहर सुनते हैं, भीतर नहीं। इसलिए आदमी बाहर खोजता है, और कभी खोज नहीं पाता। उम्र-दराज मांगकर लाए थे चार दिन । दो आरज में कट गए दो इंतजार में । ___मांगता है, रोता है, गिड़गिड़ाता है, खोजता है, टकराता है, गिरता है, फिर उठता है। आधी जिंदगी मांगने में, आधी प्रतीक्षा में बीत जाती है। हाथ खाली के 160
SR No.002378
Book TitleDhammapada 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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