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एस धम्मो सनंतनो
तो भी बचा न पाओगे-कोई नहीं बचा पाया—इसको बचाने की कोशिश में सिर्फ समय व्यतीत होगा, शक्ति क्षीण होगी। इसे बचाने की कोशिश मत करो, यह तो जाएगा ही। यह कोशिश असंभव है। जो थोड़ा सा समय मिला है क्षणभंगुर, उसमें जागने की कोशिश करो। जीवन को बचाने की नहीं, जागने की। क्योंकि जागने से ही तुम्हें एक ऐसी संपदा मिलनी शुरू होगी जो फिर कभी छीनी नहीं जाती। जिसे चोर छीन नहीं सकते, डाकू लूट नहीं सकते। मृत्यु भी जिसे छीन नहीं पाती है। जब तक वैसा स्वर तुम्हारे भीतर न बजने लगे जो सनातन है, शाश्वत है, ओंकार है; जो न कभी शुरू हुआ और न कभी अंत होगा—एस धम्मो सनंतनो-ऐसा धर्म तुम्हारे भीतर न उतर आए जो समयातीत है, काल के बाहर है, मृत्यु के हाथ जिस तक नहीं पहुंच पाते, तब तक तुम जीए जरूर, जीवन को बिना जाने जीए। तुम सोए, तुमने झपकी ली, तुम नशे में रहे, तुम होश में न आए।
बुद्ध की सारी जीवन-प्रक्रिया को एक शब्द में हम रख सकते हैं, वह है, अप्रमाद, अवेयरनेस, जागकर जीना। जागकर जीने का क्या अर्थ होता है? अभी तुम रास्ते पर चलते हो, बुद्ध से पूछोगे तो वे कहेंगे, यह चलना बेहोश है। रास्ते पर दुकानें दिखायी पड़ती हैं, पास से गुजरते लोग दिखायी पड़ते हैं, घोड़ागाड़ी, कारें दिखायी पड़ती हैं, लेकिन एक चीज तुम्हें चलते वक्त नहीं दिखायी पड़ती, वह तुम स्वयं हो। और सब दिखायी पड़ता है। पास से कौन गुजरा, दिखायी पड़ा। राह पर भीड़ है, दिखायी पड़ी। रास्ता सुनसान है, दिखायी पड़ा। सब तुम्हें दिखायी पड़ता है, एक तुम भर दिखायी नहीं पड़ते। यही तो सपना है।
सपने में तुमने कभी खयाल किया, सब दिखायी पड़ता है, एक तुम दिखायी नहीं पड़ते। सपने का स्वभाव यही है। बहुत सपने तुमने देखे हैं। कभी खयाल किया, सब दिखायी पड़ते हैं, एक तुम भर दिखायी नहीं पड़ते सपने में। मित्र-शत्रु सब दिखायी पड़ते हैं, तुम भर नहीं दिखायी पड़ते। ___यही तो स्थिति जीवन की है, जागने की है। जिसे तुम जागना कहते हो उसमें
और नींद में कोई अंतर नहीं मालूम होता। दोनों में एक बात समान है कि तुम्हारा तुम्हें कोई पता नहीं चलता। भीतर अंधेरा है। भीतर दीया नहीं जला। इसको बुद्ध प्रमाद कहते हैं, मूर्छा कहते हैं। ____ अपना ही पता न चले, यह भी कोई जिंदगी हुई ? चले, उठे, बैठे, उसका पता ही न चला जो भीतर छिपा था। अपने से ही पहचान न हुई, यह भी कोई जिंदगी है? अपने से ही मिलना न हुआ, यह भी कोई जिंदगी है? और जो अपने को ही न पहचान पाया, और क्या पहचान पाएगा? निकटतम थे तुम अपने, उसको भी न छू पाए,
और परमात्मा को छूने की आकांक्षा बनाते हो? चांद-तारों पर पहुंचना चाहते हो, अपने भीतर पहुंचना नहीं हो पाता।।
स्मरण रखो, निकटतम को पहले पहुंच जाओ, तभी दूरतम की यात्रा हो सकती
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