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एस धम्मो सनंतनो
दूसरा प्रश्नः
बुद्ध की मनोचिकित्सा और आज की पश्चिमी मनोचिकित्सा में क्या भेद है? आज का मनोविज्ञान क्या कभी धर्म की खोज में पहुंच पाएगा?
बड़ा भेद है। और बुनियादी भेद है।
पश्चिम का मनोविज्ञान-कहें आज का मनोविज्ञान, क्योंकि पश्चिम का जो है वह आज का है, इस सदी का है, आधुनिक है-आधुनिक मनोविज्ञान मन की दृष्टि से जो रुग्ण लोग हैं उनकी चिकित्सा करता है। जो सामान्य नहीं हैं, अस्वस्थ हैं, उनकी चिकित्सा करता है। बुद्ध का मनोविज्ञान उनकी चिकित्सा करता । है जो सामान्य हैं और स्वस्थ हैं।
कोई आदमी पागल हो गया, उसकी चिकित्सा करता है आधुनिक मनोविज्ञान। कोई आदमी जब तक पागल न हो जाए तब तक आधनिक मनोविज्ञान से उसका कोई लेना-देना नहीं है। वह बीमार को ठीक करने का उपाय है। लेकिन बुद्ध के पास वे लोग जाते हैं जो पागल नहीं हैं, वरन अगर हम ठीक से समझें तो होश में भर गए हैं और अब पागल नहीं रहना चाहते, पागल नहीं होना चाहते। सामान्य हैं, स्वस्थ हैं। साधारण लोग भी उनकी दृष्टि से ज्यादा पागल हैं। जिनको जीवन का होश आ गया है, जिन्होंने जीवन की समझ पा ली है, अब वे बुद्ध से कहते हैं, अकेले स्वस्थ होने से क्या होगा, सत्य भी चाहिए। स्वस्थ होना काफी नहीं है। सत्य के बिना स्वास्थ्य का भी क्या करेंगे? तो स्वस्थ को और परम स्वास्थ्य की तरफ ले जाने की व्यवस्था है।
अगर तुम डांवाडोल हो गए हो सामान्य जीवन में, ठीक से दुकान नहीं कर पाते, ठीक से दफ्तर नहीं जा पाते, स्मृति कमजोर हो जाती है, चूक जाते हो, इस तरह की बातें अगर तुम्हारे जीवन में हैं, तो आधुनिक मनोविज्ञान सहयोगी है। लेकिन सब ठीक चल रहा है, कोई गड़बड़ नहीं है; और जब सब ठीक चलता है और कोई गड़बड़ नहीं मालूम होती, तभी अचानक तुम्हें पता चलता है, ये सब ठीक भी चलता रहा तो मौत में समाप्त हो जाएगा। ये सब ठीक भी चलता रहा तो जाऊंगा कहां, पहुंचंगा कहां? ये सब ठीक भी है तो भी मौत आ रही है। ये सब ठीक भी है तो भी मैं मरा जा रहा हूं, मिटा जा रहा हूं। ये सब ठीक भी है, तो भी व्यर्थ और असार है।
जिस दिन तुम्हें सब ठीक होते हुए भी असार का बोध होता है, उस दिन तुम बुद्धपुरुषों के पास जाते हो पूछने, कि ऐसे सब ठीक है-धन है, पत्नी है, बच्चा है, मकान है, सब ठीक है-कहीं कोई अड़चन नहीं है, सुविधा से जी रहा हूं, और सुविधा से ही मर भी जाऊंगा, लेकिन क्या सुविधा से जीना और सुविधा से मर जाना
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