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एस धम्मो सनंतनो
तुम अड़चन में पड़ो, स्वाभाविक है। पुरुष के लिए सही है यही बात कि प्रेम बंधन है। स्त्री के लिए प्रेम मुक्ति है। और जो पुरुष के लिए जहर है, वह स्त्री के लिए अमृत है। और स्त्री का तो अब तक कोई धर्म पृथ्वी पर पैदा नहीं हुआ, और स्त्रियों का तो कोई तीर्थंकर नहीं हुआ, और कोई अवतार नहीं हुआ; इसलिए स्त्री के हृदय की बात को किसी ने प्रगट भी नहीं किया। ___ सारे धर्म पुरुषों के हैं। और स्वभावतः पुरुष ने अपने दृष्टिकोण को रखा है। वह पुरुष के लिए बिलकुल सही है। पुरुष जैसे ही प्रेम में पड़ता है वैसे ही बंधन खड़े हो जाते हैं। क्योंकि पुरुष का अहंकार प्रेम में बंधन देखता है। पूरा डूब तो नहीं पाता-डूब जाए तो प्रेम मुक्ति हो जाए, तो प्रेम मोक्ष हो जाए-डूब तो नहीं पाता, मजबूरी में, बेबसी में झुकता है, लेकिन भीतर अहंकार पीड़ा पाता है। और सदा लगता है, यह तो कारागृह हो गया। इससे कैसे छूटूं? . .
स्त्री के लिए प्रेम बंधन नहीं मालूम होता, क्योंकि स्त्री पूरी ही झुक जाती है। समर्पण उसका स्वभाव है। कोई अहंकार पीछे नहीं बचता, तो बंधेगा कौन? जो बंध सकता था वह तो प्रेम में गिर ही गया। पुरुष कभी झक नहीं पाता, इसलिए बंधा हुआ मालूम पड़ता है। मिट जाए तो बंधने को ही कोई नहीं बचता, प्रेम बांधेगा क्या?
और जब बंधने को कोई नहीं बचता, तो प्रेम मुक्त करता है, प्रेम परम-स्वातंत्र्य हो जाता है, लेकिन समर्पण के बाद।
पुरुष की अड़चन है, संकल्प तो कर सकता है, समर्पण नहीं कर सकता। स्त्री की अड़चन है, समर्पण तो कर सकती है, संकल्प नहीं कर सकती। मगर इसको अड़चन बनाने की जरूरत नहीं है। जो जहां है वहीं से मार्ग खोजना चाहिए। दूसरे की भाषा मत सीखना, अन्यथा अड़चन होगी।
धर्म ज्योति के साथ यही हुआ है। महात्माओं के सत्संग में रही है। महात्माओं ने पूरे मन को विकृत कर दिया है। उन्होंने जो भी सिखाया है, वह पीछा नहीं छोड़ रहा है। मेरी बात भी सुन रही है; लेकिन महात्मा बीच में खड़े हैं, वे मेरी बात को भीतर प्रवेश नहीं होने देते। उनका संस्कार पुराना है। और ऐसा भी नहीं है कि एक जन्म का हो-बहुत जन्मों का हो सकता है। और जब तक ये महात्माओं की भीड़ विदा न होगी, तब तक प्रेम तो संभव नहीं हो पाएगा।
और प्रेम भी कहीं चुल्लू-चुल्लू किया जाता है, थोड़ा-थोड़ा किया जाता है? प्रेम तो बाढ़ है। प्रेम तो कोई हिसाब-किताब नहीं रखता। वहां कोई गणित नहीं है। प्रेम तो तुम पूरे डूब जाओ तो ही है, नहीं तो नहीं है। लेकिन प्रेम शब्द में ही घबड़ाहट मालूम होती है। सदियों-सदियों के संस्कार हैं। __तो जब मैं तुमसे प्रेम की बात करता हूं, तब भी तुम समझते हो, ऐसा नहीं है। तब भी बात तुम तक पहुंच जाती है, ऐसा नहीं है। पुरुषों तक न पहंचे, कोई अड़चन नहीं। क्योंकि ध्यान से उनके लिए सुविधा है। प्रेम से ज्यादा सुविधा है उनके लिए
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