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________________ एस धम्मो सनंतनो श्रम से आया है श्रमण। श्रमण का अर्थ होता है, जिसने अर्जित किया है ज्ञान । उधार, बासा, चुराया नहीं। किसी और की जूठन इकट्ठी नहीं कर ली है। वह चाहे जूठन फिर ऋषियों की ही क्यों न हो, इससे क्या फर्क पड़ता है। जूठन जूठन है। जिसने अपने जीवन-सत्य को स्वयं ही पहचाना है, साक्षात्कार किया है, श्रम से जिसने अर्जित किया है, वह श्रमण। वह तो बुद्ध कहते हैं, 'जो दूसरों की गौएं गिनने वाले ग्वाले के समान है, श्रामण्य का अधिकारी नहीं होता।' वह भला ब्राह्मण अपने को कहता रहे, लेकिन श्रमण हम उसको न कहेंगे। फिर श्रमण की भी वही दुर्गति हो गयी। सभी शब्दों की वही गति हो जाती है। अब जैन मंदिरों में, बौद्ध विहारों में श्रमण बैठे हैं; वे वैसे ही हो गए जैसे ब्राह्मण थे। उन्होंने कुछ खाना नहीं है, बुद्ध के शब्द कंठस्थ कर लिए, महावीर की वाणी कंठस्थ कर ली। खुद कोई अनुभव नहीं है । कोई एक किरण भी नहीं उतरी अनुभव की। शब्दों का अंधेरा है; अनुभव की एक किरण नहीं । शास्त्रों की बड़ी भीड़ है, बोझ है, लेकिन शून्य का एक भी स्वर नहीं। तो दब गए हैं शास्त्रों से, लेकिन शून्य की मुक्ति उन्हें उपलब्ध नहीं हुई । जो 'ब्राह्मण' की दुर्गति हुई थी वही अब 'श्रमण' की हो गयी। सभी शब्दों की हो जाती है। क्योंकि जल्दी ही आदमी को यह समझ में आ जाता है— मुफ्त ज्ञान, चुराया ज्ञान इकट्ठा कर लेना सस्ता है। उसमें दांव पर कुछ भी नहीं लगाना पड़ता। कूड़ा-करकट कहीं से भी इकट्ठा कर लाए। लेकिन अगर ज्ञान स्वयं पाना हो, तो अपने को गंवाना पड़ता है। जो अपने को खोने को राजी है, वही सत्य को पाने का अधिकारी होता है, वही श्रामण्य का अधिकारी होता है, वही ब्राह्मण कहलाने का हकदार होता है। 'भले ही किसी को थोड़ी सी ही संहिता कंठस्थ हो, लेकिन धर्म का आचरण हो, राग, द्वेष और मोह को छोड़कर सम्यक ज्ञान और विमुक्त चित्त वाला हो, तथा इस लोक और परलोक में किसी भी चीज के प्रति निरभिलाष हो, तो वह श्रामण्य का अधिकारी होता है ।' लुफ्ते - मय तुझसे क्या कहूं जाहिद हाय कमबख्त तूने पी ही नहीं -क्या कहूं जाहिद ! वह जो शराब का मजा है - लुफ्ते - हाय कमबख्त तूने पी ही नहीं इतना ही फर्क है जानने और जीने में । कितनी ही हम ब्रह्म की चर्चा करें, अगर तुमने भी थोड़ा स्वाद नहीं लिया, बात जमेगी नहीं। कितने ही हम ब्रह्म के चित्र तुम्हारे सामने उभारना चाहें, लेकिन अगर थोड़ी सी तुम्हारे भीतर भी किरण नहीं उतरी, अगर थोड़ी सुगबुगाहट तुम्हारे भीतर के बीज ने अनुभव नहीं की, अगर थोड़ा 124 -मय
SR No.002378
Book TitleDhammapada 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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