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________________ बुद्धपुरुष स्वयं प्रमाण है ईश्वर का है। और जिसका स्वर्ग अभी नहीं है, उसके दोनों तरफ नर्क फैल जाता है। इस क्षण में सब कुछ निर्भर है। यह क्षण निर्णायक है। ____ 'इस लोक में संतप्त होता है, और परलोक में भी; पापी दोनों लोक में संतप्त होता है। मैंने पाप किया, कह-कहकर संतप्त होता है। दुर्गति को प्राप्त कर वह फिर संतप्त होता है।'.. 'भले ही कोई बहुत सी संहिता कंठस्थ कर ले, लेकिन प्रमादवश उसका आचरण न करे तो वह दूसरों की गौएं गिनने वाले ग्वाले के समान है, और वह श्रामण्य का अधिकारी नहीं होता।' भले ही कोई पूरा वेद कंठस्थ कर ले, संहिता कंठस्थ कर ले, लेकिन उसका आचरण न करे; कितना ही ज्ञानी हो जाए, लेकिन ज्ञान उसका जीवन न बने, तो वह पाप में ही जीएगा। जानने से पुण्य का कोई संबंध नहीं है। जीने से संबंध है। खुश्क बातों में कहां ऐ शेख कैफे-जिंदगी वो तो पीकर ही मिलेगा जो मजा पीने में है पीने के संबंध में कितनी ही बातें याद कर लो, शराब के सब फार्मूले कंठस्थ कर लो, परमात्मा के संबंध में जो कहा गया है याद कर लो, कितनी ही संहिता कंठस्थ कर लो-वह तो पीकर ही मिलेगा जो मजा पीने में है। खुश्क बातों में कहां... वो तो पीकर ही मिलेगा जो मजा पीने में है __ तो बुद्ध कहते हैं कि जब तक जो तुमने जाना वह तुम्हारा जीवन न हो, जब तक तुम्हारे जीने और तुम्हारे जानने में अंतर होगा, तब तक तुम भटकोगे। जब तुम्हारा जानना ही जीवन होगा, और तुम्हारा जीना ही जानना होगा; जब तुम्हारे होने में और तुम्हारे बोध में कोई अंतर न रह जाएगा; जब संहिता कंठ में न होगी, हृदय में होगी; जब वेद केवल मस्तिष्क की खुजलाहट न होगी, हृदय का भाव बनेगा; तब चाहे शब्द भूल जाएं, सिद्धांत विस्मृत हो जाएं, लेकिन तुम जीते-जागते प्रमाण होओगे, तुम सिद्धांत होओगे। तुम्हारे पास चाहे ईश्वर को प्रमाणित करने का कोई तर्क न हो, लेकिन तुम्हीं तर्क हो गए होओगे। तुम्हारी मौजूदगी प्रमाण बनेगी। ___इसीलिए तो बुद्ध ईश्वर की बात नहीं करते। वे स्वयं ईश्वर के प्रमाण हैं। उन्हें देखकर जिसको भरोसा न आया, उसे तर्क देकर भी भरोसा कैसे दिलाया जा सकेगा? एक युवक ने बुद्ध से पूछा है एक दिन कि मुझे आनंद, निर्वाण, मोक्ष, इन पर कोई भरोसा नहीं आता। आप कृपा करें और मुझे समझाएं। बुद्ध ने कहा, मुझे देखो; और अगर मुझे देखकर भरोसा न आया, तो मेरे कहने से कैसे भरोसा आ जाएगा? मैं यहां मौजूद हूं प्रमाण की तरह। और अगर तुम मुझे नहीं देख पाते, तो तुम मुझे सुन कैसे पाओगे? जिसने मुझे देखा, उसे सुनने की जरूरत न रही। और जिसने सुनने का ही ध्यान रखा, वह मुझे देख न पाएगा। 121
SR No.002378
Book TitleDhammapada 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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