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________________ एस धम्मो सनंतनो तो प्रार्थना और पूजा भी पाप हो जाती है। मूल उदगम असली सवाल है। कहां से आ रहा है कृत्य। जो कृत्य मूछित, वही पाप। जो कृत्य जाग्रत, वही पुण्य। बुद्ध कहते हैं, 'इस लोक में शोक करता है, और परलोक में भी; पापी दोनों जगह शोक करता है। वह अपने मैले कर्मों को देखकर शोक करता है, वह अपने मैले कर्मों को देखकर पीड़ित होता है।' इस लोक में भी, परलोक में भी। पापी के जीवन को हम थोड़ा समझें, क्योंकि वही अधिकांश में हमारा जीवन है। पाप का अर्थ है, मूर्छा। तो जब मूर्छा में तुम कुछ करते हो, उस घड़ी मूर्छा के कारण कुछ भी उपलब्ध नहीं होता। मूञ्छित को कैसे कुछ उपलब्ध होगा? जैसे एक आदमी बेहोशी में बगीचे से गुजर जाए। फूल सुगंध बांटते रहेंगे, पर उसे न मिलेगी। सूरज की किरणें नाचती रहेंगी, पर वह नाच उसके लिए हुआ न हुआ बराबर है। बगीचे की सुगंध, बगीचे की ठंडी हवा उसे घेरेगी, उसे छुएगी, लेकिन वह होश में नहीं है। वर्तमान में जो नहीं है, वह उत्सव से वंचित रह जाएगा। और जो होश में नहीं है, वह वर्तमान में नहीं हो सकता। वर्तमान में होना और होश में होना एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। तो पापी कभी जी ही नहीं पाता। केवल जीने की योजना बनाता है। या जो जीवन उसने कभी नहीं जीया उसकी स्मृति को संजोता है, या जो जीवन वह कभी नहीं जीएगा, उसकी कल्पना करता है, सपने निर्मित करता है। लेकिन जीता कभी नहीं। क्योंकि जीना तो अभी और यहीं है। तो पापी जीवन से ही वंचित रह जाता है। ध्यान रखना, बुद्ध यह नहीं कह रहे हैं-जैसा कि साधारण धर्मगुरु कहते हैं कि पापी दुख पाता है; क्योंकि उसने पाप किया, परमात्मा उसे पाप का फल देगा। बुद्ध की परमात्मा को बीच में लाने की प्रवृत्ति नहीं है। बुद्ध तो यह कह रहे हैं कि पापी इस लोक में भी और उस लोक में भी सुख से वंचित रह जाता है। और सुख से वंचित रह जाना दुख है। आनंद से वंचित रह जाना पीड़ा है। महोत्सव से वंचित रह जाना महानर्क में पड़ जाना है। कोई नर्क में डालता नहीं, न ही कोई दंड दे रहा है, न ही कोई तुम्हारे कृत्यों का लेखा-जोखा रख रहा है, लेकिन पापी के जीने का ढंग ऐसा है कि वह चूक जाता है। और जो इस लोक में चूक जाता है वह परलोक में भी चूकेगा। क्योंकि चूकने की आदत मजबूत हो जाती है। तुम थोड़ा खयाल करो। तुम कभी वर्तमान में होते हो? भोजन कर रहे होते हो, लेकिन मन कहीं और। प्रार्थना कर रहे होते हो, लेकिन मन कहीं और। सिर झुक रहा होता है मंदिर में, लेकिन तुम वहां नहीं। अगर कभी परमात्मा आए भी तुम्हें खोजते हुए, तो तुम घर पर न मिलोगे। तुम घर पर कभी हो ही नहीं। अगर वह तुम्हारी प्रार्थना सुन ले-और मैं जानता हूं बहुत बार उसने तुम्हारी प्रार्थना सुनी है, हर बार सुनी है लेकिन जब भी वह आता है तुम्हें घर नहीं पाता। तुम कहीं और 110 .
SR No.002378
Book TitleDhammapada 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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