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________________ बुद्धपुरुष स्वयं प्रमाण है ईश्वर का __ अगर ओठों पर मुस्कुराहट हो, तो भी कारण भीतर है। आंखों में आंसू हों, तो भी कारण भीतर है। जिसने देखा कि कारण बाहर है, वही अधार्मिक है। जिसने यह बात समझ ली कि मेरी जिंदगी में जो भी घट रहा है वह मेरा ही कृत्य है, वह मेरे ही होश और जतन या बेहोशी और गैर-जतन का परिणाम है, वह व्यक्ति धार्मिक हो गया। फिर दुख ज्यादा देर तुम्हारे पास न रह सकेगा। फिर तुम अचानक पाओगे एक क्रांति शुरू हुई। कल तक जो एक मुफलिस की कबा थी, एक भिखारी का वस्त्र थी, वही एक सम्राट का स्वर्णिम वस्त्र बनने लगी। कल तक जहां सिवाय कंकड़-पत्थर के कुछ भी न मिला था, वहीं हीरे-जवाहरात उपलब्ध होने लगे। जहां से तुम गुजरे हो वहीं से बुद्ध भी गुजरते हैं। पर देखने की आंख अलगअलग है। होश का ढंग अलग-अलग है। दो तरह से आदमी जी सकता है। एक ढंग है ऐसे जीने का कि जैसे कोई नींद में जीता हो, मूर्छित जीता हो, चला जाता हो भीड़ में धक्के खाते; न तो पता हो कहां जा रहा है, न पता हो क्यों जा रहा है, न पता हो कि मैं कौन हं; भीड़ में धक्के खा रहा हो और चला जा रहा हो। रुकना मुश्किल हो, इसलिए चला जा रहा हो। रुककर भी क्या करेंगे, रुककर भी क्या होगा, इसलिए चला जा रहा हो। कुछ करने को नहीं है, इसलिए कुछ किए जा रहा हो। एक तो जिंदगी ऐसी है बेहोश। __• और एक जिंदगी होश की है कि प्रत्येक कृत्य सुनियोजित है, और प्रत्येक कृत्य सुविचारित है, और प्रत्येक कृत्य के पीछे एक जागरण है-जानते हुए किया गया है, अनजाने नहीं किया गया; अचेतन से नहीं निकला है, अंधेरे से नहीं आया है, भीतर के होश से पैदा हुआ है। मूर्छा से हुआ कृत्य पाप है। बेहोशी से पैदा हुआ कृत्य पाप है। फिर चाहे संसार उसे पुण्य ही क्यों न कहे! क्योंकि कृत्य कहां से पैदा होता है इससे उसका स्वभाव निर्मित होता है। लोग क्या कहते हैं, यह बात अर्थपूर्ण नहीं है। राह पर तुमने एक भिखारी को दान दे दिया। लोग तो कहेंगे पुण्य किया। लेकिन अगर दान मूर्छा से निकला है, होश से नहीं निकला, तो पुण्य नहीं है, पाप है। तमने दान अगर इसलिए दे दिया है कि चार लोग वहां देखते थे और प्रशंसा होगी, दान किसी करुणा से नहीं आया है बल्कि अहंकार से आया है, तो पाप हो गया। तमने अगर इसलिए दे दिया है कि देने की आदत हो गयी है, इनकार करते नहीं बनताः देने में प्रतिष्ठा जुड़ गयी है, इनकार करते नहीं बनता, लोग जानते हैं कि तम दाता हो; मूर्छा से हाथ खीसे में चला गया और तुमने दे दिया; न तो देखी उस आदमी की पीड़ा, न देखा उस आदमी के मांगने का प्रयोजन; जैसे शराब में मस्त कोई जाता हो बेहोश और दान दे दिया हो-सुबह याद भी न रही-तो पुण्य नहीं हआ। कृत्य का गुण तय होता है तुम्हारे भीतर कहां से कृत्य आया। अगर होश में आया हो, तो उठना-बैठना भी पुण्य हो जाता है। और अगर बेहोशी में आया हो, 109
SR No.002378
Book TitleDhammapada 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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