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________________ ताओ उपनिषद भाग ६ 82 के बाहर स्वागत करें। सम्राट नया-नया था, अकड़ से भरा था। उसने कहा कि क्यों मैं जाऊं ? आखिर बुद्ध एक भिखारी ही हैं। और आना होगा तो खुद महल आ जाएंगे। और मेरी क्या जरूरत है जाने की ? उस बूढ़े वजीर ने तुरंत इस्तीफा लिख दिया। उसने कहा कि फिर मेरा इस्तीफा सम्हाल लें। क्योंकि इतने छोटे आदमी के नीचे काम करना फिर मुझे मुश्किल है। तुम में बड़प्पन है ही नहीं। वह सम्राट बोला, बड़प्पन नहीं है ? बड़प्पन की वजह से ही तो मैं जा नहीं रहा हूं। उस बूढ़े वजीर ने कहा, इसे हम बड़प्पन नहीं कहते। बुद्ध कभी सम्राट थे, और उन्होंने उस सम्राट होने को छोड़ कर भिक्षुक का पात्र लिया । इसलिए भिक्षुक का पात्र साम्राज्य से बड़ा है। साम्राज्य को छोड़ दिया इस पात्र के लिए। अगर तुम्हें दिखाई पड़ता हो तो तुम एक अवस्था पीछे हो अभी बुद्ध से। क्योंकि सम्राट होने के बाद वे भिक्षु हुए हैं। अभी तुम सम्राट ही हो, अभी भिक्षु होने में तुम्हें बहुत देर है । और तुम्हें चलना होगा प्रणाम करने को, और झुकना होगा चरणों में । अन्यथा मेरा इस्तीफा सम्हाल लें। एक अनूठा प्रयोग पूरब में हुआ है, और वह यह कि जो सबसे पीछे है उसके चरणों में वह झुके जो सबसे आगे है। क्योंकि सबसे आगे, तो अभी भी बचकाना है, महत्वाकांक्षा की दौड़ है, ज्वर है। जो सबसे पीछे खड़ा है वह प्रौढ़ हो गया। अब उसकी कोई प्रतियोगिता किसी से भी न रही। अब प्रतिस्पर्धा बिलकुल शून्य हो गई। इस शून्य प्रतिस्पर्धा में ही तो पहली दफा आत्म- गौरव का जन्म होता है। अब कोई छीना-झपटी नहीं है। अब धन बाहर नहीं है, धन भीतर है। अब किसी से कुछ पाना नहीं है, अब जो पाना है वह मिला ही हुआ है। अब भीतर का दीया जलता है, अब बाहर की रोशनियों का कोई सवाल न रहा। अब हो जाए गहन अंधकार बाहर, तो भी अंतर न पड़ेगा। कोई भी न हो बाहर, सारी पृथ्वी खाली हो जाए, तो भी इसके एकांत में वही शांति और वही आनंद होगा जो भीड़ के रहते था। अब जंगल और बाजार में कोई फर्क न रहा। अब तुम क्या कहते हो, अच्छा या बुरा, कोई उसकी संगति नहीं है। इतनी आत्म- गरिमा में प्रतिष्ठित जो है उसी का नाम संत है। 'वे आगे-आगे चलते हैं, और लोग उनकी हानि नहीं चाहते। और तब संसार के लोग खुशी-खुशी और सदा के लिए उन्हें सिर आंखों पर रखते हैं। क्योंकि वे कलह नहीं करते, इसलिए संसार में कोई उनके विरुद्ध संघर्ष नहीं कर पाता।' • संत से लड़ना मुश्किल है। लड़े कि हारे। संत से अगर लड़े कि हारना सुनिश्चित है। संत को हराया नहीं जा सकता। क्यों? क्योंकि संत की कोई जीतने की आकांक्षा नहीं है। जो जीतना ही नहीं चाहता उसे तुम हराओगे कैसे ? रामकृष्ण से विवाद करने आए थे केशवचंद्र । हराने आए थे; हार कर लौटे। क्योंकि रामकृष्ण ने विवाद किया ही नहीं । उलटी ही हो गई बात सब। केशवचंद्र करने लगे तर्क की बात कि ईश्वर नहीं है, सिद्ध करने लगे। और हर तर्क पर रामकृष्ण उठ उठ कर उनको गले लगाने लगे और कहने लगे, वाह-वाह, बिलकुल ठीक कहा। थोड़ी देर में केशवचंद्र मुरझा गए कि अब करना क्या ? जो भीड़ देखने आई थी रामकृष्ण की पराजय को, वह भी बड़ी बेचैन हो गई कि यह किस तरह का विवाद हो रहा है ! तो केशवचंद्र ने कहा, आप मेरी सब बातों को हां कहते हैं तो आप पराजय स्वीकार करते हैं? रामकृष्ण ने कहा, मैंने कभी दावा ही कहां किया तुम्हें जीतने का ? तुम्हारी जैसी प्रतिभा को और मुझ जैसा गंवार जीत सकेगा? असंभव ! मगर एक बात तुमसे कहता हूं कि मैं तो बेपढ़ा-लिखा हूं, परमात्मा की कोई बहुत बड़ी प्रतिभा मुझसे प्रकट नहीं हो रही है; तुम्हें देख कर मुझे पक्का भरोसा आ गया कि परमात्मा है। इतनी प्रतिभा ! ऐसा तर्क ! कैसे गजब की बातें तुमने कहीं! जहां इतनी प्रतिभा हो सकती है वहां परमात्मा होना ही चाहिए। क्योंकि पदार्थ से ऐसी प्रतिभा कैसे पैदा होगी? और यह मानने को मैं राजी नहीं हूं केशव, कि तुम सिर्फ मिट्टी-पत्थर हो ।
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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