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ताओ उपनिषद भाग
कर थोड़े ही श्रेष्ठ होना है। और किसी के सिर पर बैठ कर कभी कोई श्रेष्ठ हुआ है? श्रेष्ठता जब वस्तुतः होती है तो उसकी गरिमा आंतरिक है; किसी दूसरे से उसका कोई संबंध नहीं। दूसरे के मत, दूसरे के सहारे की कोई भी जरूरत नहीं। श्रेष्ठता अकेली जी सकती है। श्रेष्ठ व्यक्ति हिमालय के एकांत में भी उतना ही श्रेष्ठ होगा।
तुम्हारे प्रधानमंत्री को, तुम्हारे राष्ट्रपति को जंगल के एकांत में ले जाओ। जैसे-जैसे भीड़ छंटने लगेगी वैसे-वैसे राष्ट्रपति छोटा होने लगेगा। जब ठेठ तुम जंगल में ले जाओगे, और वहां कोई भी न रहेगा, अकेला राष्ट्रपति रह जाएगा, तो वृक्षों के कौए भी ज्यादा श्रेष्ठ मालूम पड़ेंगे। वह कुछ भी नहीं है, ना-कुछ है। उसकी सारे होने की ताकत तो लोगों की भीड़ पर थी, जिनके सिर पर वह चढ़ना सीख गया था। जब लोग ही जा चुके, सीढ़ी गिर गई।
नेपोलियन जब हार गया तो उसे सेंट हेलेना के द्वीप में बंद कर दिया गया। हारे नेपोलियन की बड़ी दुर्दशा होती है। जीत थी तो वह संसार का मालिक था, हार गया तो दो कौड़ी का हो गया। लेकिन फिर भी, जैसे रस्सी जल जाती है और अकड़ रह जाती है; रस्सी तो जल गई, लेकिन मरते दम तक नेपोलियन ने कपड़े न बदले। सड़ गए, गंदे हो गए; फट गए। बहुत बार कहा गया कि नये कपड़े आपके लिए उपलब्ध हैं, आप पहन लें। उसने कहा कि नहीं। मरते वक्त उसने अपनी डायरी में लिखा है कि ये कपड़ों की बात ही और, ये सम्राट के कपड़े हैं। और तुम कितने ही ताजे और नये कंपड़े ले आओ, वे एक कैदी के कपड़े होंगे।
राख हो गई सब, लेकिन अकड़ बाकी है। अर्भी भी वह चलता है तो उसी अकड़ से। फटे हैं कपड़े, पुराने हैं कपड़े, जराजीर्ण हो गए, लेकिन वह अब भी अपने को सोच रहा है कि सम्राट है। मरते समय उसने लिखा है कि मान लिया कि मैं अब सम्राट नहीं हैं, लेकिन इसे तो कोई भी इनकार न करेगा कि मैं एक हारा हुआ सम्राट हूं। हारा हुआ हूं माना, मगर हूं तो सम्राट ही। मगर हारे हुए सम्राट का क्या मतलब होता है?
आदमी जितना भीतर अभाव अनुभव करता है हीनता का, हीनता का कीड़ा जितना भीतर काटता है, उतने ही बाहर उपाय करता है कि कैसे उसे ढांक ले। बाहर रोशनियां जलाता है ताकि भीतर का अंधेरा न दिखाई पड़े। भीतर तो हर कोई जानता है कि मैं ना-कुछ हूं, इसलिए दूसरों पर अकड़ जताता है। और ध्यान रखना, जितना ही कोई अकड़ जताए दूसरों पर उतना ही छोटा आदमी भीतर छिपा है। बड़े आदमी की तो अकड़ होती ही नहीं। बड़ा आदमी तो ऐसा होता है जैसे हो ही न। महानता शून्यता है। और जब तुम कहीं भी उस शून्यता को देखते हो तब अचानक तुम्हारा सिर झुक जाता है। तब तुम किसी को सिर पर रख लेना चाहते हो।
संत ऊपर होते हैं, अपने कारण नहीं, लोग उन्हें ऊपर उठा लेते हैं। लोग उन्हें बिना ऊपर उठाए रह नहीं सकते; क्योंकि उनको ऊपर उठाने में ही पंख मिलते हैं, उनको ऊपर उठाने में तुम उनके साथ उड़ना शुरू करते हो। उनको तुम जितना ऊपर उठाते हो उतना ही तुम भी ऊपर उठते हो।
निकृष्ट आदमी को ऊपर बिठाना खतरनाक है। क्योंकि जितना ही तुम निकृष्ट को ऊपर बिठाते हो, तुम नीचे दबते हो, तुम और छोटे होते जाते हो। गुलाम होना बुरा है, क्योंकि तुम जब भी गुलाम होने को राजी हो जाते हो किसी के, तभी तुम्हारे भीतर सब सिकुड़ने लगता है; तुम और गुलाम होने लगते हो।
लेकिन दास होने का मजा और। गुलामी और दासता में फर्क है। गुलाम तो जबरदस्ती बनाया जाता है, दूसरा तुम्हारी छाती पर सवार हो जाता है। और दास होने का मतलब है, तुम किसी को अपने सिर पर उठा लेते हो। तो गुलामी परतंत्रता है, और दास हो जाने से बड़ी स्वतंत्रता नहीं।
इसलिए कबीर कहते हैं, कहे दास कबीर।
यह जो दास है कबीर का यह गुलाम नहीं है; यह दासता अंगीकार की है, यह छोटा होना अपनी तरफ से स्वीकार किया है, यह पीछे होना अपनी तरफ से साधा है; अपने को ना-कुछ बनाने में स्वेच्छा से चेष्टा की है।
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