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________________ ताओ उपनिषद भाग ६ चाहिए; तभी तुम सफल हुए। अन्यथा तुम असफल हो गए। महत्वाकांक्षा चलती है एक रेखा में और जीवन चलता है वर्तुल में। महत्वाकांक्षा कहती है, जन्म हो गया, अब मृत्यु होनी ही नहीं चाहिए। अब तो जीओ, और जीने का हर उपाय करो। मरते दम तक भी मरने को टालो। और पश्चिम में बहुत से उपाय खोज लिए गए हैं। तो बहुत से लोग मुर्दो की भांति टंगे हैं, अस्पतालों में टंगे हैं। इंजेक्शन दिए जाते हैं, वे जिंदा हैं। लेकिन उनकी स्थिति साग-सब्जी से ज्यादा नहीं है। मरना नहीं चाहते, और जीना तो जा चुका है। क्योंकि जीवन वर्तुलाकार है। तो अब वे टंगे हैं-बड़ी पीड़ा में, बड़े कष्ट में। छोड़ नहीं सकते हैं, जीवन को छोड़ने की हिम्मत नहीं है। सब उपाय किए जा रहे हैं कि वे किसी तरह बचे रहें। उनका कोई बचने का अर्थ भी नहीं है, कोई उपयोग भी नहीं है; उनके खुद के लिए भी नहीं है, दूसरे के लिए भी नहीं है। वे एक बोझ हैं। लेकिन अस्पतालों में किसी की टांगें बंधी हैं, किसी के हाथ बंधे हैं, और उनको इंजेक्शन दिए जा रहे हैं और आक्सीजन दी जा रही है। और उनको जिलाया जा रहा है। यह जबरदस्ती है। यह रेखाबद्ध तर्क का परिणाम है। मरो मत! एक दफे पैदा हो गए, अब मरना नहीं है। एक दफे पद पर पहुंच गए, अब हटना नहीं है पद से। अब और ऊपर जाना है। और कहीं ऊपर जाने को न हो तो जिस पद पर पहुंच गए हैं आखिर में उसको पकड़े रखना है। उसको छोड़ना नहीं है आखिरी दम तक। धन जो मिल गया उसको बढ़ाते जाना है। उसी रेखा में बढ़ते चले जाना है—बिना सोचे कि जब दस हजार से सुख न मिला तो दस लाख से कैसे मिल जाएगा! और जब दस हजार में इतना विषाद है तो दस लाख में तो और बढ़ जाएगा! और जब दस हजार में इतने हारे-थके मालूम पड़ रहे हैं तो दस लाख में क्या गति होगी! लाओत्से कह रहा है कि जीवन का मापदंड है कि तुम स्मरण रखना कि वर्तुलाकार है सब। आज जवान हो, सदा नहीं रहोगे। और जब जवानी जाने लगे तो पकड़ना मत। विदा दे देना, शांति से विदा दे देना। क्योंकि वर्तुल अब लौटने लगा। पक्षी अपने घर आने लगा। आना ही पड़ेगा घर। यह बात अगर गहरी समझ में आ जाए तो तुम्हारे जीवन में एक सदगुण आ जाएगा, जो साधारण नीति नहीं दे सकती; जो केवल प्रज्ञा से ही पैदा होता है। तब तुम . चीजों को आएंगी तो स्वागत करोगे, जाएंगी तो स्वागत करोगे। तुम जानोगे, जो आया है वह जाएगा। तुम जवान हो जाओगे तो प्रसन्न रहोगे; जवानी जाने लगेगी तो प्रसन्न रहोगे। क्योंकि ज्वार आता है तो फिर भाटा भी होगा; चांदनी रातें आएंगी, फिर अंधेरी रातें भी आएंगी। और तुम यह याद रखोगे, आखिर में वही रह जाना है जो तुम प्रथम में थे। . और वह कभी खोने वाला नहीं। इसलिए भय क्या है? खाली हाथ तो सदा तुम्हारे पास होंगे ही। नग्न तुम पैदा हुए थे, नग्न ही तुम विदा हो जाओगे। न कुछ लेकर आए थे, न कुछ लेकर जाना है। अगर यह बोध गहन हो जाए तो जीवन में एक अनासक्ति आती है। वह अनासक्ति अनासक्ति का व्रत लेने से नहीं आती। वह अनासक्ति तो इस समझ का सहज परिणाम है। 'जो इन दोनों सिद्धांतों को जानते हैं, वे प्राचीन मानदंड को भी जानते हैं। और प्राचीन मानदंड को सदा जानना ही रहस्यमय सदगुण कहलाता है।' तो दो तरह के सदगुण हैं। एक तो साधारण सदगुण है जिसको हम आरोपित कर लेते हैं। सच बोलना चाहिए। क्योंकि सिखाया गया है, भय दिया गया है कि नहीं सच बोले तो नरक में पड़ोगे, नहीं सच बोले तो स्वर्ग न मिलेगा। भय है, लोभ है, शिक्षा है, संस्कार है। लेकिन यह वास्तविक सदगुण नहीं है। भय के कारण सच बोल रहे हो तो सच तुम्हारा भय से छोटा है। लोभ के कारण सच बोल रहे हो तो सच भी तुम्हारा लोभ का ही हिस्सा है। और सत्य कैसे लोभ का हिस्सा हो सकता है? और सत्य कैसे भय का हिस्सा हो सकता है? सत्य तो अभय है। सत्य तो निर्लोभ है। सिखाया गया है। और सब शिक्षाएं लोभ और भय पर ही खड़ी हैं।
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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