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परमात्मा परम लयबद्धता है
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कच्छी और गुजराती लड़ेगा; सौराष्ट्र का रहने वाला गुजराती से लड़ेगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम बांटते जाओ। जब तक दो आदमी हैं, लड़ाई जारी रहेगी। और अगर एक ही बचा तो वह आत्महत्या कर लेगा। क्योंकि कहां जाएगी अशांति ? अशांति को कहीं तो निकालना पड़ेगा। और लाओत्से उसका मूल कारण कह रहा है कि लोगों को तुमने इतने विचार दे दिए हैं कि अब उनके मन शांत नहीं हो पाते।
'जो ज्ञान से किसी देश पर शासन करना चाहते हैं वे राष्ट्र के अभिशाप हैं। जो ज्ञान से देश पर शासन नहीं करना चाहते, वे राष्ट्र के वरदान हैं।'
बड़ी उलटी बातें मालूम पड़ती हैं, पर बड़ी महत्वपूर्ण और बड़ी सत्य हैं।
'जो इन दोनों सिद्धांतों को जानते हैं वे प्राचीन मानदंड को भी जानते हैं। और प्राचीन मानदंड को सदा जानना ही रहस्यमय सद्गुण कहाता है। जब रहस्यमय सदगुण स्पष्ट, दूरगामी बनता है और चीजें अपने उदगम को लौट जाती हैं, तब, और तभी, उदय होता है भव्य लयबद्धता का ।'
तो लाओत्से कहता है, जो इन दो सिद्धांतों को समझ लेते हैं कि अज्ञान में लोग शांत होते हैं और ज्ञान में अशांत हो जाते हैं; अज्ञान में लोग सरल होते हैं और ज्ञान में जटिल और कुटिल हो जाते हैं; अज्ञान में निर्दोष होते हैं, ज्ञान में चालाक, जो इन दोनों सिद्धांतों को जानता है उसे उस प्राचीन मानदंड का भी अनुभव हो जाएगा। वह प्राचीन मानदंड, रहस्यमय सदगुण उसको कहता है लाओत्से, वह प्राचीन मानदंड क्या है? वह प्राचीन मानदंड यह है कि तुम्हारा जीवन का अंतिम लक्ष्य जीवन के मूल स्रोत को पा लेना है; वहीं पहुंच जाना है जहां से तुमने शुरू किया था। वह प्राचीन मानदंड है। लक्ष्य, अंत, प्रारंभ से भिन्न नहीं है। जीवन वर्तुलाकार है। जैसे वर्तुल जहां से शुरू होता 'है वापस वहीं पूरा हो जाता है। और जीवन में सारी गति वर्तुलाकार है । तारे वर्तुलाकार घूमते हैं; सूरज वर्तुलाकार घूमता है; पृथ्वी वर्तुलाकार घूमती है। मौसम आते हैं एक वर्तुल में। बचपन, जवानी, बुढ़ापा, जन्म-मृत्यु एक वर्तुल में घूमते हैं। सारी जीवन की गति सर्कुलर है, वर्तुलाकार है । और वर्तुल का लक्षण यह है कि चीजें वहीं आकर पूर्ण होती हैं जहां से शुरू हुई थीं। इसका अर्थ हुआ : प्रथम कदम ही अंतिम कदम सिद्ध होता है। सारी यात्रा के बाद तुम अपने घर ही वापस लौट आते हो। यह है प्राचीन मानदंड ।
लेकिन साधारणतः शिक्षा, ज्ञान, पांडित्य तुम्हें सिखाता है कि कोई लक्ष्य पाना है जो तुम्हारे पास नहीं है; कोई महत्वाकांक्षा पूरी करनी है; एक रेखा में चलना है। जैसे समझो। एक बच्चा पैदा हुआ। क्या लेकर पैदा होता है ? खाली हाथ पैदा होता है। मरता है तब भी खाली हाथ मरता है। वही अवस्था वापस लौट आती है। जो इन दोनों को जोड़ लेता है और समझ लेता है कि इसके बीच सारा खेल है। धन आता है, जाता है; जीत होती है, हार होती है; असफलता, सफलता; पाना, खोना; लेकिन सब बीच में है। अंत में तो वहीं लौट आते हैं जहां से चले थे। खाली हाथ फिर खाली हो जाते हैं। जिसने इस बात को समझ लिया, उसने जीवन के सदगुणों का सार समझ लिया, उसने जीवन का रहस्यमय सदगुण समझ लिया, उसने वह अनूठा मानदंड पहचान लिया। क्योंकि तब वह ध्यान रखेगा कि आज नहीं कल हाथ खाली हो जाने हैं। और जिसको यह पता है कि अंत में हाथ खाली हो जाने हैं, जैसा आया था वैसा ही जाना है, वह सफलता में बहुत पागल भी न होगा, विफलता में बहुत दुखी भी न होगा; न तो सफलता में नाचेगा, और न विफलता में मुर्दा की तरह बैठ जाएगा; क्योंकि वह जानता है अंततः सब चला जाएगा। हाथ ही पास रह जाएंगे, खाली हाथ तो आना-जाना खेल रह जाएगा। उसमें ज्यादा मूल्य नहीं है।
लेकिन सारी शिक्षा क्या सिखाती है ? सारी शिक्षा वर्तुलाकार नहीं सिखाती जीवन को, रेखाबद्ध, लीनियर बताती है। शिक्षा कहती है, आज तुम्हारे पास एक रुपया है, कल दो होने चाहिए, परसों तीन होने चाहिए। आज दस हजार हैं, कल पचास हजार होने चाहिए। रेखाबद्ध तुम्हें बढ़ते जाना चाहिए। मरते वक्त करोड़ों रुपये तुम्हारे पास होने