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________________ ताओ उपनिषद भाग लाओत्से कहता है, ऐसा ज्ञान खतरनाक है। क्योंकि ऐसा ज्ञान तुम्हारे और तुम्हारी वास्तविकता के बीच दीवार बन जाता है। और इस ज्ञान के चलते तुम धीरे-धीरे भूल ही जाओगे कि तुम अज्ञानी हो। और यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। जो व्यक्ति यह भूल जाए कि मैं अज्ञानी हूं, उसके ज्ञान की तरफ जाने का मार्ग ही सदा के लिए खो गया। अज्ञान की स्मृति बनी रहे तो तुम यात्रा करते रहोगे खोज की। तुम चेष्टा करोगे, उठोगे, चलोगे; कुछ उपाय करोगे। अगर तुम्हें यह खयाल हो गया कि तुमने तो जान लिया...। और कितनी सरलता से यह खयाल नहीं हो जाता है! पढ़ लिए उपनिषद, वेद, गीता; आ गया खयाल कि जान लिया; दोहराने लगे शब्द बासे, तोतों की तरह, रटने लगे। रटन बिलकुल व्यवस्थित हो गई, कहीं कोई भूल-चूक नहीं है तुम्हारी रटन में। तुम वे ही शब्द दोहराते हो जो कृष्ण दोहराते हैं। कृष्ण से भला भूल-चूक हो जाए, तुमसे नहीं होती। क्योंकि कृष्ण ने तो पहली ही बार दोहराए थे, कोई और रिहर्सल का मौका तो मिला न था। और तुमने तो बहुत बार दोहराए हैं; रिहर्सल ही रिहर्सल चलता रहा है। कृष्ण अगर फिर से कहेंगे गीता तो बड़ी भिन्न हो जाएगी। कहां याद किए बैठे रहेंगे कि क्या कहा था अर्जुन से! बड़े रूपांतरण हो जाएंगे। अर्जुन भी बदल चुका होगा; कृष्ण भी बदल चुके होंगे; परिस्थिति भी नयी हो गई होगी। कृष्ण अगर फिर से गीता कहेंगे तो तुम्हारी गीता से उसका तालमेल न के बराबर होगा। लेकिन तुम जो गीता याद किए बैठे हो वह कभी न बदलेगी। संसार बदलता रहेगा, गंगा बहती रहेगी, तुम्हारी गीता थिर और जड़ हो जाएगी। तुम्हारी गीता मुर्दा होगी। जीवन तो बदलता है, जीवन तो प्रतिपल प्रवाहमान है। पंडित के पास जो ज्ञान है वह ज्ञान नहीं है; वह ज्ञान का धोखा है। लाओत्से कहता है, पंडित होने से तो अज्ञानी होना बेहतर। कम से कम अज्ञानी की संभावना तो है। पंडित ने तो संभावना भी बंद कर ली। पंडित तो ऐसी दशा में है जैसे किसी बीमार आदमी को खयाल आ जाए कि वह स्वस्थ हो गया; स्वास्थ्य के संबंध में किताबें पढ़ ले, और स्वास्थ्य की चर्चा से भर जाए, और सोच ले कि स्वस्थ हो गया, क्योंकि स्वास्थ्य के संबंध में मुझे इतना पता है। लेकिन स्वास्थ्य के संबंध में पता होने से क्या कोई स्वस्थ होता है? स्वस्थ होने का रास्ता कुछ और है; स्वास्थ्य के संबंध में पता होने से नहीं। स्वस्थ होना एक जीवंत प्रक्रिया है, जानकारी नहीं। नहीं तो डाक्टर कभी . बीमार ही न पड़ें। डाक्टर भी बीमार पड़ता है। जानता है बहुत स्वास्थ्य के संबंध में, इससे क्या फर्क पड़ता है। जानकारी से स्वास्थ्य नहीं आता। जानकारी से आत्मा का भी अनुभव न होगा। लेकिन जानकारी खड़ी हो जाती है पर्त बांध कर। जानकारी ज्ञान की झूठी प्रतिछवि है, खोटा सिक्का है। लगता है बिलकुल असली सिक्के जैसा। और जिन्होंने असली सिक्का न जाना हो उनकी मजबूरी साफ है। क्योंकि वे पहचानें भी कैसे कि यह खोटा है? तो क्या है पहचान जिससे तुम समझ लोगे कि तुम्हारा ज्ञान खोटा है? एक ही पहचान है, और वह यह कि तुम्हारा ज्ञान तुम्हें शांति दे तो समझना कि सच और तुम्हारा ज्ञान तुम्हें और अशांत करे तो समझना कि खोटा। तर्क से निर्णय नहीं होगा; तुम्हारे भीतर के स्वास्थ्य, तुम्हारे भीतर की निर्मलता, तुम्हारे भीतर की शांति से ही निर्णय होगा। लाओत्से कहता है कि अज्ञानी बेहतर। क्योंकि अज्ञानी विनम्र होगा, और अज्ञानी कहेगा मैं जानता नहीं हूं। सीखने को तैयार होगा। अज्ञानी शिष्य होने को तत्पर होगा। तथाकथित ज्ञानी शिष्य नहीं होना चाहेगा। वह तो शिष्य होने के पहले गुरु हो गया है। उसने तो जान ही लिया है। अब तो वह दूसरों को जनाने को तैयार है। और जो उसने जाना है वह जीवन नहीं है। क्योंकि तुम्हें उसके पैरों में जीवन की कोई भनक न मिलेगी। तुम्हें उसकी आंखों में जीवन की कोई छाया न मिलेगी। तुम्हें उसके हृदय के पास जीवन की कोई धड़कन न मिलेगी। तुम सब तरफ से उसे मुर्दा पाओगे। लेकिन जानकारी का बड़ा संग्रह कर लिया है उसने। सिक्कों की तरह उसने ज्ञान इकट्ठा कर लिया है। ज्ञान ऐसा ही है जैसा कभी तुमने इंग्लैंड की महारानी को लोगों से हाथ मिलाते देखा हो। अब हाथ मिलाने का इतना ही प्रयोजन है कि दो व्यक्तियों के शरीर निकट आएं, एक-दूसरे की चमड़ी एक-दूसरे का स्पर्श करे, सीमा 50
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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