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न और ज्ञान में बड़ा भेद है। एक तो ज्ञान है जो तुम्हें बिलकुल मिटा जाता है, भीतर बच रहती है एक गहन शांति, एक निबिड़ मौन। सब स्वर खो जाते हैं, सब विचार विलीन हो जाते हैं; रह जाता है मौन संगीत। इस शून्य की तरफ जो ज्ञान ले जाए वह ज्ञान और। उस ज्ञान को ही लाओत्से अज्ञान कहता है। क्योंकि जिसे तुम ज्ञान कहते हो, अगर वही ज्ञान है, तो जिसे लाओत्से ज्ञान कहता है उसे अज्ञान ही कहना उचित है। क्योंकि वहां कुछ भी तो जानने को बचता नहीं, न जानने वाला ही बच रहता है। जानने का उपद्रव ही समाप्त हो जाता है। इतनी परिपूर्ण शून्यता होती है जैसे आकाश हो बिना बदलियों का। विचार तो बादलों की भांति हैं। वे आकाश नहीं हैं; आकाश में उठ गया उत्पात हैं।
जहां विचार ही नहीं हैं वहां ज्ञान कैसे होगा? इसलिए लाओत्से उसे अज्ञान कहता है।
तुम चाहो तो उसे परम ज्ञान कह सकते हो। शब्द में मत उलझ जाना। और लाओत्से का शब्द बिलकुल ठीक है। अज्ञान का अर्थ है : जहां कोई ज्ञान की तरंग नहीं रह गई; अभाव हो गया जानने का। और जहां जानना बिलकुल मिट जाता है वहीं तो पहली दफा जानने की वास्तविक क्षमता का उदय होता है। क्योंकि उसी शून्य में तो सत्य की • परख आती है। और उसी रिक्तता में ही तो उतरता है परमात्मा। उसी द्वार पर तो दस्तक पड़ती है प्रभु की जिस द्वार के
भीतर सन्नाटा हो जाता है। जब तक भीतर शोरगुल है तब तक शोरगुल ही तो उसे भीतर न आने देगा। और जब तक भीतर बहुत-बहुत बदलियां घिरी हैं तब तक तुम अंतर-आकाश को कैसे जान पाओगे?
. दूसरा ज्ञान है जिसे हम ज्ञान कहते हैं। वह ज्ञान तुम्हारे भीतर किसी शून्यता से नहीं जन्मता, वरन विपरीत शब्दों से, सिद्धांतों से, शास्त्रों से तुम अपने को भर लेते हो। उसे भरेपन को भी ज्ञान हम कहते हैं।
तो एक तो ज्ञान है शून्यता का, और एक ज्ञान है शब्दों के भराव का। जैसे आकाश बादलों से इतना घिर गया कि अब कहीं से कोई नील-आकाश दिखाई नहीं पड़ता। सब तरफ बदलियां ही बदलियां घिरी हैं। ऐसे ही जब तुम्हारे भीतर जानकारियों की पर्ते ही पर्ते हो जाती हैं तब तुम लगते तो हो कि बहुत जानकार हो, और तुम जैसा अज्ञानी कोई भी नहीं होता। जानते बहुत हो और जानते कुछ भी नहीं। ऐसी गति होती है। बताना चाहो तो बहुत बता सकते हो, शास्त्र तुम्हें कंठस्थ हो जाते हैं, लेकिन तुम्हारे जीवन में कहीं वह सुरभि नहीं उठती जो ज्ञानी के जीवन में उठनी चाहिए। तुम्हारे पास मुर्दा शब्द होते हैं। मरघट और लाशें तुमने इकट्ठी कर लीं। तुम उस मूल स्रोत तक नहीं पहुंचे जहां भीतर ज्ञान का आविर्भाव होता है। तुमने तो कचरा बटोर लिया राह के किनारे से। दूसरों ने छोड़ी थी जो जूठन, उसे तुमने इकट्ठा कर लिया। वे कितने ही सुंदर शब्द हों-बुद्ध के हों, महावीर के हों, कृष्ण के हों, क्राइस्ट के हों-इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम उधार से कभी भी वास्तविक को न पा सकोगे।
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