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________________ प्रेम को सम्हाल लो, सब सम्छल जाएगा संतुलन टूटता है। क्योंकि क्रोध में तुम वह कर बैठते हो जो नहीं करना था। क्रोध में तुम वह कर बैठते हो जिसके लिए तुम पछताओगे। प्रेम से कभी कोई नहीं पछताया है। और अगर तुम प्रेम के कारण पछताए हो तो समझना कि प्रेम नहीं, कुछ और रहा होगा। वासना रही होगी, मोह रहा होगा, लोभ रहा होगा, काम रहा होगा; प्रेम नहीं। प्रेम के कारण कोई कभी नहीं पछताया। प्रेम पछतावा जानता ही नहीं है। प्रेम का कोई पश्चात्ताप नहीं है। . प्रेम एक संतुलन देता है। क्योंकि प्रेम तुम्हारे व्यक्तित्व को एक माधुर्य देता है, एक स्निग्धता देता है। प्रेम तुम्हारे रोएं-रोएं को एक हलकी शांति, एक रस देता है। उस रस के कारण तुम अति पर जाने से बचने लगते हो। क्योंकि अगर अति पर जाओगे तो रस टूटता है। उस रस के कारण तुम अति पर नहीं जाते।। प्रेमी ऐसे चलता है जैसे गर्भवती स्त्री चलती है-ऐसा जीवन में चलता है। क्योंकि वह दौड़ नहीं सकती, उसे पता है कि एक और जीवन सम्हाल रही है; दौड़ेगी, गर्भपात हो सकता है। गर्भवती स्त्री कैसे चलती है, कभी गौर से देखा? कुछ उसके पास सम्हालने को है; वह कुछ सम्हाल कर चलती है। उसकी चाल में एक शालीनता है, एक खजाना है; अपने से भी महत्वपूर्ण कोई भीतर छिपा है जिसके जन्म के लिए वह कितनी ही पीड़ा झेलने को तैयार है; जिसके जन्म के लिए वह अपने जीवन को भी खोने को तैयार हो सकती है। प्रेमी भी ऐसे ही जीता है; उसके भीतर कुछ सम्हालने के लिए कोई दीया जल रहा है भीतर। ऐसी पुरानी कथा है कि एक संन्यासी ने सम्राट जनक को कहा कि मैं भरोसा नहीं कर सकता कि आप इस सब गोरखधंधे में राज्य, महल, संपत्ति, शत्रु, मित्र, दरबार, राजनीति, कूटनीति, वेश्याएं, नाच-गान, शराब-इस सबके बीच, और आप परम ज्ञानी रह सकते हैं। मैं भरोसा नहीं कर सकता। क्योंकि हम तो झोपड़ों में भी रह कर न हो सके। और हम तो नग्न रह कर भी जंगलों में खड़े रहे और संसार से छुटकारा न मिला। तो आपको कैसे मिल जाएगा? भरे संसार में हैं, संसार के मध्य में खड़े हैं। जनक ने बिना उत्तर दिए दो सैनिकों को आज्ञा दी : पकड़ लो इस संन्यासी को! संन्यासी बहुत घबड़ाया। उसने कहा, हद हो गई! हम तो सोचते थे कि आप महा करुणावान और ज्ञानी हैं। तो आप भी साधारण सम्राट ही निकले। पर जनक ने उनकी कुछ बात सुनी नहीं, और कहा कि आज रात नगर की सबसे सुंदर वेश्या नृत्य करने आने वाली है महल में, तो बाहर मंडप बनेगा, उसका नृत्य चलेगा। इससे सुंदर कोई स्त्री मैंने नहीं देखी। नृत्य चलेगा, दरबारी बैठेंगे, संगीत होगा, रात भर जलसा रहेगा। तुम्हें एक काम करना है। ये दो सैनिक तुम्हारे दोनों तरफ नंगी तलवार लिए चलेंगे और तुम्हारे हाथ में एक पात्र होगा-तेल से भरा, लबालब भरा, कि एक बूंद और न भरी जा सके-उसे सम्हाल कर तुम्हें सात चक्कर लगाने हैं। और अगर एक बूंद भी तेल की गिरी, ये तलवारें तुम्हारी गर्दन पर उसी वक्त उतर जाएंगी। संन्यासी फंस गया, अब क्या करे! और यह आदमी कम से कम मौका दे रहा है एक सात दफे चक्कर लगाने का, वैसे भी मरवा सकता है। तो एक अवसर तो है कि शायद कोशिश कर लें। सुंदर स्त्री का नाच शुरू हुआ। उसने पहले अपने आभूषण फेंक दिए, फिर वह अपने वस्त्र फेंकने लगी, फिर वह बिलकुल नग्न हो गई। बड़ा मधुर संगीत था। बड़ा प्रगाढ़ आकर्षण था। लोग मंत्रमुग्ध बैठे थे। ऐसा सन्नाटा था, जैसा मंदिरों में होना चाहिए, लेकिन केवल वेश्याघरों में होता। दो तलवारें नंगी और वह संन्यासी बीच में फंसा हआ बेचारा।। अब तुम सोच ले सकते हो, गृहस्थ होता तो भी चल लेता। संन्यासी! संन्यासी के मन में स्त्री का जितना आकर्षण होता है, गृहस्थ के मन में कभी नहीं होता। जैसे भूखे के मन में भोजन का आकर्षण होता है; भरे पेट के मन में क्या आकर्षण होता है? अगर वेश्या के घर में ही पड़े रहने वाले किसी आदमी को यह काम दिया होता, उसने मजे से कर दिया होता; इसमें कोई अड़चन न आती। लेकिन संन्यासी ने सपने में देखी थीं नग्न स्त्रियां; जब ध्यान 43
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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