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________________ प्रेम और प्रेम में भेद है तीसरी अवस्था है जब कि सिंहासन फिर भर गया। एक तो चंचल मन है-भरा हुआ मन, व्यर्थ कचरे से, कूड़े से। फिर ध्यानस्थ का मन है-शून्य मन, खाली मन। फिर समाधिस्थ का मन है-फिर भर गया, सार्थक से, सार से, परमात्मा से। तो एक तो भरे हुए तुम हो, संसार से; फिर एक भरे हुए संत हैं, परमात्मा से। और तुम दोनों के बीच में साधक है; संसार से खाली, परमात्मा से अभी भरा नहीं। इसलिए ऐसा होगा : कोरा कागज कोरा रह जाएगा, फिर भी हाथ से कलम छूटने की हिम्मत न आएगी। लगेगा, शायद! शायद! अब आता हो, अब मांग उठती हो, कौन जाने? क्योंकि बहुत अंधेरा है भीतर। थोड़ा सा कोना प्रकाशित हो गया है। उस प्रकाशित में तो तुम आश्वस्त हो कि कोई मांग नहीं, कोई प्रश्न नहीं। लेकिन अंधेरे में जो दबे कोने हैं, उनके संबंध में कौन भरोसा दिलाए? शायद कोई तरंग उठ आए। इसलिए। लेकिन कीमती दशा है। इतना भी कुछ कम नहीं। विक्षिप्तता से इतना भी छूट जाना बहुत है, आधी मंजिल पूरी हो गई। और जब आधी पूरी हो गई तो शेष आधी भी पूरे होने में कोई देर नहीं है; वह भी जल्दी पूरी हो जाएगी। जिसने पहला कदम उठा लिया उसका आखिरी कदम भी उठ ही गया। कहता है लाओत्से, एक-एक कदम चल कर हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। बीज हाथ में आ गया तो वृक्ष को कितनी देर लगेगी? बीज आ गया तो वृक्ष आ ही गया, संक्षिप्त में, सार में। अव्यक्त में आया है अभी, जल्दी ही व्यक्त हो जाएगा; अंकुरित होगा, शाखाएं निकलेंगी, पल्लवित होगा, फूल लगेंगे। पर बीज हाथ में आ गया। ध्यान बीज है; समाधि वृक्ष। जल्दी ही, जल्दी ही, अगर कोई सम्यकरूपेण चलता जाए अपनी ऊर्जा को सम्हाल कर, व्यर्थ से बचा कर, राह से यहां-वहां ज्यादा न उतरे, समय और शक्ति को व्यय न करे; सम्हाल कर-क्योंकि अभी तुम्हारे पास ऊर्जा भी थोड़ी है-संचित किए हुए, संयमित किए हुए चलता जाए, जल्दी ही मंजिल आ जाती है। फिर कुछ सम्हालने की जरूरत नहीं रहती। फिर बहो बाढ़ आई नदी की भांति; फिर लुटाओ, फिर बांटो। और जितना कोई बांटता है उस संपदा को उतनी ही बढ़ती चली जाती है। परमात्मा को कोई कभी बांट कर चुका पाया? फिर अनंत के द्वार खुल गए। लेकिन तब तक बहुत सम्हाल-सम्हाल कर एक-एक कदम रखना है; ऊर्जा कम है, शक्ति सीमित है, मार्ग लंबा है। मंजिल जब तक नहीं मिली, दूर ही समझना। है तो बहुत पास; लेकिन अगर पास समझ ली तो यह डर है कि तुम ऊर्जा को यहां-वहां व्यय कर दो कि इतने पास है, पहुंच ही जाएंगे। नहीं, मंजिल दूर है, ऐसा जानना। जब तक मिल ही न जाए तब तक मंजिल बहुत दूर है। जिसको मिल जाती है, वह कहता है, एकदम पास थी। साधक के लिए यही समझना उचित है कि मंजिल बहुत दूर है, राह लंबी है, चलना काफी है; और ऊर्जा कम है, सीमित है; संरक्षित करना है। पहुंचे हुए सिद्ध सदा कहते हैं, मंजिल मिली ही है। वे भी ठीक कहते हैं; वह दूर कभी थी ही नहीं। लेकिन यह मिल जाने के बाद का बोध है। इसलिए सिद्धों के वचन भी बहुत सोच-विचार कर लेना। कभी-कभी सिद्धों के वचन भी तुम्हें भटकाने का कारण बन सकते हैं, क्योंकि तुम भटकने को इतने उत्सुक हो कि तुम उनके सहारे भी भटक सकते हो। अपने भटकने की उत्सुकता को ध्यान में रखना सदा और अपनी आकांक्षा को ध्यान में रखना कि तुम उलझन में पड़ने के लिए तत्पर हो। सम्हालना। अगर सम्हाले चले, अगर ध्यान आ गया है, जल्दी ही समाधि भी द्वार पर दस्तक देगी। और एक बात खयाल रखना, आखिरी बात, कि ध्यान तो तुम्हें करना पड़ता है, समाधि तुम्हें करनी नहीं पड़ती; वह आती है। तुम तो ध्यान किए चले जाओ। तुम तो कोरे कागज की भांति होते चले जाओ। तुम तो यही 419
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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