SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 407
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमात्मा का आशीर्वाद बरस रहा है __तो उस पत्नी ने कहा, तुम्हें पा लिया, सब पा लिया। क्या इसका मतलब यह हुआ कि सम्राट के आ जाने से हीरे-जवाहरातों के आभूषण आ जाएंगे, कि स्वर्ण-कलश आ जाएंगे, कि सारी दुनिया की संपदा आ जाएगी? नहीं, यह मतलब नहीं हुआ। अगर ऐसा तुम समझे तो गलत समझे। लेकिन जिसके हृदय में प्रेम है, उसके लिए सब आ गया। हीरे-जवाहरात आ गए; स्वर्ण-कलश आ गए। प्रेमी के आने में सब आ गया। तुम्हें दिखाई भी न पड़ेगा, तुम्हें तो सिर्फ प्रेमी आता दिखाई पड़ेगा, हाथ खाली दिखाई पड़ेंगे। लेकिन जिसके हृदय में प्रेम है उसके लिए सब आ गया। कुछ पाने योग्य और बचा ही न। लाने की कोई जरूरत न थी। तुम आ गए, सब आ गया। बुद्धिमान एक को जान लेता है; निर्बुद्धि अनेक के पीछे दौड़ता, भटकता और पागल हो जाता है। अनेक के पीछे दौड़ोगे तो पागल हो ही जाओगे। बहुत सी नावों में एक साथ यात्रा कैसे करोगे? बहुत दिशाओं में कैसे चलोगे? एक की खोज वाला धीरे-धीरे, धीरे-धीरे शांत होकर विमुक्त हो जाता है; अनेक की खोज वाला धीरे-धीरे अशांत होते-होते विक्षिप्त हो जाता है। विक्षिप्तता और विमुक्तता ये दो छोर हैं। मध्य में खड़े हो तुम। अगर अनेक की खोज की तो विक्षिप्तता की तरफ बढ़ते जाओगे, पागल होओगे ही। वह तार्किक निष्कर्ष है। अगर एक की खोज की तो पागलपन मिटता जाएगा। शांत हो जाओगे, प्रफुल्लित हो जाओगे, खिल जाओगे। एक मेधा प्रकट होगी, एक प्रतिभा का प्रकाश आने लगेगा। जैसे-जैसे एक की तरफ बढ़ोगे वैसे-वैसे संगठित होने लगोगे। जैसे-जैसे एक के पास पहुंचोगे वैसे-वैसे भीड़ छंटने लगेगी; तुम भी एक होने लगोगे। क्योंकि समान ही समान को जान सकता है। जब तुम एक हो जाओगे तभी तुम एक को जान पाओगे। जब तुम अनेक हो जाओगे तभी तुम अनेक के साथ संबंध बना पाओगे। अनेकता विक्षिप्तता में ले जाएगी। एकता विमुक्ति है। 'संत अपने लिए संग्रह नहीं करते। दूसरों के लिए जीते हैं, और स्वयं समृद्ध होते जाते हैं। दूसरों को दान देते हैं, और स्वयं बढ़ती प्रचुरता को उपलब्ध होते हैं।' संत अपने लिए संग्रह नहीं करते, क्योंकि अपने लिए जीते नहीं। दो तरह के जीने के ढंग हैं। एक तो अपने लिए जीने का ढंग है जो तुम जानते हो। और इसीलिए परेशान हो। अपने लिए जो जी रहा है वह सारी दुनिया की शत्रुता में जीएगा। सब दुश्मन हैं। जो अपने लिए जी रहा है, शत्रुता उसका आधार है। जो अपने लिए जी रहा है वह जी ही न पाएगा; शत्रुता में ही उसका जीवन नष्ट हो जाएगा। एक दूसरा ढंग है : दूसरे के लिए जीना। जो दूसरे के लिए जीता है मित्रता उसका आधार है। अब कोई डर ही न रहा किसी से कुछ। कोई दूसरा छीन ही नहीं सकता; हम दूसरे के लिए ही जी रहे हैं। महावीर ने कहा है : मित्ति मे सब्ब भुए सू, वैरं मज्झ न केणई। मेरी मित्रता है सबसे, सारे भूमंडल से-सब्ब भुए सू। और वैर मेरा किसी से भी नहीं। कोई कारण ही न रहा वैर का। महत्वाकांक्षा न रही; स्वयं के लिए जीने का पागलपन न रहा। वासना की जगह करुणा जीवन का सूत्र हो गया। वासना का मतलब है छीनो; करुणा का मतलब है दो। बड़ी पुरानी भारतीय कथा है कि देव, दानव और मानव तीनों प्रजापति के पास उपस्थित हुए ठीक सृष्टि के प्रारंभ में और उन्होंने कहा, हमें उपदेश दें हम क्या करें? प्रजापति ने कुछ उपदेश नहीं दिया, जोर से निनाद किया ः दो, दो, दो। यह तो निनाद दो, दो, दो, दानवों ने नहीं सुना, केवल देवताओं ने सुना। वस्तुतः प्रजापति ने दो, दो, दो, दान-दान-दान ऐसा कहा न था, सिर्फ इतना ही कहा थाः द, द, द। देवताओं ने सुना द; निश्चित अर्थ है : दान, दो। मानवों ने, मनुष्यों ने सुना द-दमन, दबाओ। अपने अनुसार ही तो सुना जाएगा। प्रजापति ने तो जैसे द, द, द, जैसे छोटे बच्चे उदघोष कर दें ऐसा उदघोष किया। दानवों ने क्या समझा? उन्होंने समझा दुष्टता। द, उन्होंने व्याख्या की दुष्टता, क्रूरता, छीनो, सताओ। देवताओं ने 397|
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy