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ताओ उपनिषद भाग ६
समझा ः दो, दान, करुणा। मनुष्यों ने सोचाः दबाओ अपनी वासनाओं को, इच्छाओं को, दमन, संयम। हम वही सुनते हैं जो हम हैं; जो कहा जाता है वह नहीं सुनते। वह हम सुन भी कैसे सकेंगे?
'संत अपने लिए संग्रह नहीं करते।'
इसलिए नहीं कि संग्रह बुरा है, बल्कि इसलिए कि संतों ने अपने अनुभव से जाना है कि जितना तुम संग्रह करोगे उतना ही तुम दीन होते चले जाओगे, दरिद्र हो जाओगे, जितना तुम दोगे उतने ही समृद्ध हो जाओगे। असल में, तुम उसी चीज के मालिक होते हो जिसे तुम दे सकते हो। तुमने कभी देकर देखा कि देते वक्त कैसी परितप्ति होती है! जैसी लेते वक्त कभी नहीं होती। और छीनते वक्त तो हो ही कैसे सकती है? जब तुम किसी की जेब से कुछ निकालते हो, तो तुम चाहे हीरा भी निकाल लो, लेकिन परितृप्ति नहीं हो सकती। भीतर एक बेचैनी होती है, भीतर पूरे प्राण आकुल होते हैं। कुछ तुम कर रहे हो जो तुम्हारी प्रकृति के विपरीत है; अन्यथा बेचैनी क्यों? परेशानी क्यों?
अगर तुम अपनी बेचैनी के इंगित को भी समझ लो तो तुम समझ जाओगे कि कुछ तुम्हारी प्रकृति के प्रतिकूल हो रहा है। लेकिन तुम साधारण सी चीज किसी को भेंट दे देते हो-किसी मित्र को, किसी के विवाह में, किसी के जन्मदिन पर, या अकारण किसी गरीब को कुछ दे देते हे, राह चलते भिखारी को दो पैसे दे देते हो-देते वक्त तुमने देखा, एक बड़ी गहरी परितृप्ति, एक परितोष तुम्हें घेर लेता है। जैसे स्वाभाविक है। जैसे दान स्वाभाविक है, स्वभाव के अनुकूल है; और छीनना स्वभाव के प्रतिकूल है।
अगर तुम्हें दान देते वक्त परितृप्ति न मालूम हो तो समझना कि तुमने दान गलत कारणों से दिया। अन्यथा परितृप्ति होगी ही। अब कोई राजनेता आ गया कि चुनाव में आपकी सहायता की जरूरत है। देना तुम चाहते नहीं, लेकिन अगर न दो तो यह आदमी कभी न कभी बदला ले सकता है, कहीं जीत गया चुनाव तो फिर झंझट खड़ी करेगा, तो दे देना अच्छा है। तो होशियार आदमी दोनों पार्टियों के उम्मीदवारों को दे देते हैं। तुम शांत रहो, क्योंकि तुमसे शैतान होने की संभावना है, तुम कभी भी शैतानी कर सकते हो।
मुल्ला नसरुद्दीन से मैंने पूछा कि तुम्हारे इलाके से दो आदमी चुनाव में खड़े हुए हैं; दोनों में से तुम किसको अच्छा समझते हो? उसने कहा कि दोनों एक-दूसरे से ज्यादा बुरे हैं। दोनों एक-दूसरे से ज्यादा बुरे हैं; लेकिन परमात्मा का धन्यवाद, शुक्र अल्लाह का उसने कहा कि केवल दो में से एक ही चुना जा सकता है। नहीं तो और मुसीबत होती। शुक्र अल्लाह का कि दो में से एक ही चुना जा सकता है। यही एक आशा है। बाकी दोनों एक-दूसरे से बुरे हैं।
राजनेता आ जाता है, उसको भी देना पड़ता है, मुस्कुरा कर देना पड़ता है। लेकिन भीतर तुम्हें बेचैनी मालूम होती है, सुख नहीं मालूम होता। राह पर एक भिखमंगा मांगने खड़ा हो जाता है। चार आदमी क्या कहेंगे देख कर अगर तुम न दोगे कि दो पैसे न दिए! अरे कंजूस, इतना कंजूस कि दो पैसे न निकले, और गिड़गिड़ा रहा था भिखमंगा! और भिखमंगे बड़ा शोर मचाते हैं, ताकि और लोग भी देख लें, पैर पकड़ लेते हैं, इज्जत का सवाल बना देते हैं। तो दो पैसे तुम देते हो; लेकिन परितोष नहीं होता। ।
परितोष तो तभी होगा जब तुम हृदय से देते हो, और कोई कारण देने का नहीं है। अगर कारण है तो वह दान ही न रहा; वह भी धंधे का हिस्सा है, सौदा है। वह भी बाजार में प्रतिष्ठा खरीद रहे हो दो पैसे देकर भिखमंगे को। उसको तुम मूल और ब्याज से वसूल करके रहोगे। इसी बाजार से वसूल करोगे। इसी राजनेता को जिसको तुमने हजार रुपये दे दिए हैं चुनाव में लड़ने के लिए, तुम दस हजार के लाइसेंस निकलवा कर रहोगे। सब सौदा है।
लेकिन दान सौदा नहीं है। दान का अर्थ है: दे दिया, और देने में इतना पा लिया कि अब इसके आगे पाने का कोई सवाल ही नहीं उठता; जितना दिया उससे ज्यादा देने में ही पा लिया।
संत संग्रह नहीं करते, क्योंकि उन्हें एक कला आ गई है। वह कला है, वे देकर इतना पा लेते हैं कि रोक कर
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