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________________ परमात्मा का आशीर्वाद बरस रहा हूँ 395 असल में, जो स्वयं को जान लेता वह सब जान लेता। क्योंकि स्वयं सबका सार-संचित है; स्वयं के भीतर सारा ब्रह्मांड छिपा है छोटे से पिंड में । अनंत आकाश समाया है तुम्हारे छोटे से हृदय में। वह बीज-रूप है, यह विराट वृक्ष-रूप है। बीज को जिसने जान लिया उसने पूरे वृक्ष को जान लिया। क्योंकि बीज में सारा ब्लू-प्रिंट है, पूरे वृक्ष की एक-एक पत्ती छिपी है। अभी प्रकट नहीं हुई है, छिपी है। तुम्हारे भीतर सारा ब्रह्मांड छिपा है। इसलिए उपनिषद कहते हैं, तत्वमसि । वह तुम ही हो । यह श्वेतकेतु जब गुरु के पास गया तब यह वचन बोला गया । श्वेतकेतु वापस लौटा और उसने गुरु से कहा— उदास होकर, चिंतित होकर — इतना सब सीखा, लेकिन पिता प्रसन्न न हुए और उन्होंने एक सवाल किया जिसका मैं जवाब न दे पाया। उन्होंने पूछा, उस एक को जाना जिसको जानने से सब जान लिया जाता है ? गुरु ने कहा, तत्वमसि श्वेतकेतु । वह तू ही है श्वेतकेतु, जिस एक की तेरे पिता ने बात उठाई। अच्छा हुआ तू वापस लौट आया, क्योंकि हम उस एक का इशारा तभी कर सकते हैं जब कोई प्यासा होकर आए। इसके पहले और सबके जानने के लिए चेष्टा की, जिज्ञासा की, वह तूने जाना। अब तू एक की जिज्ञासा लेकर आया; अब तू उसे भी जान लेगा। लेकिन वह तू ही है। इसलिए कहीं और नहीं जाना है, भीतर जाना है। किसी और से नहीं पूछना है, भीतर डूबना है। अब शास्त्र बेकार हैं, उच्छिष्ठ हैं। अब वेदों में कुछ सार नहीं, क्योंकि वह तो निशब्द है, वहां तो मौन में उतरना है। बुद्धिमान एक को जानता है, और एक को जान कर सबको जान लेता है। बुद्धिहीन अनेक को जानता है, और अनेक को जान जान कर एक को भी खो देता है। एक साधे सब सधे । और जिसने एक को साध लिया उसने सब साध लिया । और जिसने अनेक को साधना चाहा वह तीन-तेरह बांट हो गया, वह खंड-खंड हो गया। वह अनेक के साथ अनेक हो गया। इसीलिए तो तुम एक भीड़ हो । अभी तुम्हारे भीतर व्यक्तित्व नहीं । एक नहीं तो व्यक्तित्व कैसे होगा? तुम तो एक भीड़ हो । बहुत तरह के लोग तुम्हारे भीतर हैं। सुना है मैंने कि बायजीद जब अपने गुरु के पास गया, तो जैसे ही गुरु के झोपड़े में प्रविष्ट हुआ और कहा कि मैं अब सब छोड़ कर आ गया हूं आपके चरणों में, अब और प्यासा न रखें, अब मुझे तृप्त कर दें, बायजीद के गुरु ने ऐसा चारों तरफ देखा । सन्नाटा था, और कोई न था, बायजीद खड़ा था। और गुरु ने कहा, तू आ गया वह तो ठीक, लेकिन यह भीड़ क्यों साथ लेकर आया है? वहां कोई था ही न । बायजीद ने लौट कर पीछे देखा खुद भी कि कोई भीड़ है ? आस-पास कोई भी न था । बायजीद ने कहा, कैसी भीड़ ? मैं बिलकुल अकेला आया हूं। बायजीद के गुरु ने कहा, आंख बंद कर और भीड़ को पाएगा। और कहते हैं बायजीद ने आंख बंद की और भीड़ को पाया। क्योंकि तुम अभी एक नहीं हो, बहुत हो । पत्नी के सामने तुम्हारा कोई और चेहरा है; ग्राहक के सामने दुकान पर तुम्हारा कोई और चेहरा है; बेटे के सामने तुम्हारा कोई और चेहरा है। नौकर के सामने तुम्हारी अकड़ ही और। अमीर को देख कर तुम कैसी पूंछ हिलाने लगते हो; गरीब को देख कर कैसे अकड़ जाते हो। तुम्हारे कितने चेहरे हैं ! तुम्हारे कितने रूप हैं! यह भीड़ है तुम्हारे भीतर । तुम्हारे भीतर अभी एक स्वर तो बजा ही नहीं । तुम हो कौन ? तुम अभी पूछोगे मैं कौन हूं, उत्तर न पाओगे। क्योंकि बहुत उत्तर मिलेंगे। कोई कहेगा कि तुम फलाने के बेटे हो; तुम फलाने के बाप हो; तुम उसके पति हो; तुम इसके नौकर हो, उसके मालिक हो। तुम पूछोगे मैं कौन हूं, हजार उत्तर आएंगे भीतर। उत्तरों से घाटी गूंज उठेगी। उनमें से कोई भी उत्तर सही नहीं है। क्योंकि एक ही तुम हो सकते हो। न तो तुम किसी के पति हो, और न किसी के मित्र, न किसी के शत्रु । इन सबको छोड़ो। तुम अपने में क्या हो ? ये तो दूसरों से संबंध हैं; यह तुम्हारा होना नहीं है। यह तुम्हारा अस्तित्व नहीं है, तुम्हारा स्वरूप नहीं है। ये तो नाटक में मिले तुम्हें अभिनय हैं। कभी बाप हो, कभी बेटे हो, कभी मित्र हो, कभी शत्रु हो, ठीक है; लेकिन ये तुम नहीं हो।
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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