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प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए जिम्मेवार हैं।
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में केंद्र का जन्म हो जाता है। एक आधारभूत स्थिति तुम्हारे भीतर बनने लगती है। इसी आधारभूत स्थिति पर फिर तुम्हारे जीवन के सारे स्वर्ग का आरोहण, जीवन के सारे संगीत का जन्म संभव हो पाता है।
मत ठहराओ किसी और को दोषी । मत ठहराओ किसी और को उत्तरदायी । सब तरफ से उत्तरदायित्व खींच लो। अपने केंद्र स्वयं हो जाओ। तब तुम्हारे जीवन में क्रांति संभव है। इससे कम पर क्रांति न होगी । और तुमने और तरह के तो सब उपाय किए हैं। दूसरा गाली देता है; तुम अपने को समझाते हो कि झगड़ा करना उचित नहीं, असभ्य 'है, शिष्टाचार के विपरीत है। लेकिन ऊपर से चाहे तुम झगड़ा न करो, भीतर झगड़ा शुरू हो गया। कोई अपमान करता है; तुम सोचते हो कि अरे छोड़ो भी, कुत्ते भौंकते रहते हैं, हाथी निकल जाता है।
यह तो अहंकार का विचार हुआ— कुत्ते भौंकते रहते हैं, हाथी निकल जाता है। तुम हाथी हो; बाकी लोग कुत्ते हैं। यह कोई बड़ी समझदारी की बात न हुई। यह तो बड़ा अहंकार हुआ। और दोषी तो तुम ठहरा ही रहे हो। अपने को समझा रहे हो कि दूसरे कुत्ते हैं, तुम हाथी हो। ऐसा संतोष पैदा कर रहे हो ।
यह संतोष काफी संतोष नहीं है। इस संतोष के भीतर असंतोष छिपा है; जल्दी ही प्रकट हो जाएगा। तुम ज्यादा देर शांत न रह सकोगे। यह शांति थेगड़े वाली शांति है; ये थेगड़े छिपा न सकेंगे तुम्हारी अशांति को । सच तो यह है, ये और बुरी तरह प्रकट करेंगे।
ऐसा हुआ कि एक भिखमंगा एक घर के द्वार पर भीख मांग रहा था। उसकी कमीज फटी थी । गृहिणी को दया आ गई और उसने कहा कि तुम्हारी कमीज निकाल दो; जब तक तुम भोजन करोगे तब तक मैं तुम्हारी कमीज सी दूं । फटी कमीज। क्यों फटी कमीज पहने फिर रहे हो ? उस आदमी ने कहा कि नहीं, क्षमा करें। आपकी बड़ी कृपा, लेकिन कमी सीने को मैं न दे सकूंगा । गृहिणी हैरान हुई। उसने कहा, बात क्या है? उस आदमी ने कहा कि थेगड़े से तो गरीबी बहुत जाहिर होती है; थेगड़े का तो मतलब है कि घर से ही फटी कमीज पहन कर निकले हैं। फटी कमीज से तो इतना ही हो सकता है कि रास्ते में फट गई हो; घर जाकर बदल लेंगे। फटी कमीज से पक्का नहीं लगता कि आदमी गरीब है। फटी कमीज से तो इतना ही लगता है कि रास्ते में फट गई हो, कोई वृक्ष की टहनी में उलझ गई हो; घर लौट कर बदल लेंगे। लेकिन थेगड़ा लगी कमीज से तो गरीबी बिलकुल जाहिर होती है। उसका मतलब घर से ही थेगड़ा लगा पहन कर निकले हैं। नहीं, उस आदमी ने कहा, गरीब हूं, लेकिन इतना गरीब नहीं कि दुनिया में जाहिर करता फिरूं कि घर से ही थेगड़ा लगी कमीज को पहन कर निकले हैं।
बुरा होना भी बेहतर है थेगड़े लगे भले होने से, क्योंकि थेगड़ों के पीछे बुरा होना प्रकट हो रहा है। बुरे आदमी में भी एक तरह की सच्चाई और प्रामाणिकता होती है जो थेगड़े लगे सज्जन में नहीं होती । थेगड़े मत लगाना। और तुम सबने यह कोशिश की है, क्योंकि वह आसान लगता है । कमीज बदलना मंहगा काम है; थेगड़ा लगाना बहुत आसान है। क्रोध आता है तो लोग थेगड़े लगा लेते हैं; मूल को बदलने की फिक्र न करके समझा लेते हैं कि क्रोध कोई सज्जन का काम नहीं; समझा लेते हैं कि क्रोध हमें करना नहीं है; कसम ले लेते हैं कि हम क्रोध न करेंगे; क्रोध करेंगे तो अपने को दंड देंगे, उपवास रख लेंगे एक दिन का। यह सब थेगड़े लगाना है। मंदिर में भीड़ के सामने कसम ले लेंगे कि अब से मैं क्रोध न करूंगा ।
ऐसे आदमियों को तुम जरा गौर से देखो। तो तुम तो कभी-कभी क्रोध करते हो, ऐसे आदमियों को तुम चौबीस घंटे क्रोध में तपता हुआ पाओगे। तुम्हारा तो कभी-कभी विस्फोट होता है, ऐसे आदमियों में तुम कभी क्रोध का विस्फोट न देखोगे, क्योंकि कसम ले ली है; लेकिन क्रोध इकट्ठा होता जाता है। दर पर्त जमता जाता है, पर्त-पर्त जता जाता है। ऐसा आदमी क्रोधी हो जाता है। क्रोध नहीं करता, उसके होने का ढंग ही क्रोध हो जाता है। वह तुमसे भी ज्यादा जलता है। उसने थेगड़ा लगाने की कोशिश की।