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________________ बिर्बल के बल नाम जाता है अगर तुम उसके नृत्य में खो जाओ। एक क्षण को अपने नृत्य के द्वार से तुम्हें वह किसी दूसरे ही जगत का दर्शन करा देता है। बड़ा बलशाली है; लेकिन कितना निर्बल। उठाओ एक पत्थर और मार दो, नृत्य भी गिर जाएगा, नर्तक भी गिर जाएगा। फूल जैसा कमजोर है, यहां जो भी महत्वपूर्ण है। और लाओत्से कहता है, 'कठिन को जीतने में उससे बलवान और कोई नहीं है। उसका कोई पर्याय ही नहीं है। यह कि दुर्बलता बल को जीत लेती है, और मृदुता कठोरता पर विजय पाती है। इसे कोई नहीं जानता है, न ही इसे कोई व्यवहार में ला सकता है।' ___इसे कोई नहीं जानता, क्योंकि तुम जानते तो तुम्हारे जीवन में वह अपने आप घट जाता। यह थोड़ा समझने के लिए, थोड़ी नाजुक बात है। _ लाओत्से यह कह रहा है, जो जान लेता है वह हो जाता है। जानने और होने में फासला नहीं है। जीवन में कुछ चीजें हैं बाहर की, उन्हें तुम पहले जानो, फिर जानने के बाद अभ्यास करना पड़ता है। और भीतर के जगत का नियम बिलकुल अनूठा है। वहां जानना ही पर्याप्त है; जानो कि हो गए। तुमने अगर समझ ली यह बात मेरे समझाने से नहीं, लाओत्से के समझाने से नहीं, जीसस के प्रभाव में नहीं-तुमने यह बात समझ ली तुम्हारी ही बुद्धि की आभा में। तुमने सोचा, ध्यान किया, जीवन का दर्शन किया, जगह-जगह गए, चूंघट उठाया प्रकृति का और पहचानने की कोशिश की कि कौन है विजेता? अंततः कौन जीत जाता है-कमजोर कि सबल? तुमने असली बल की खोज की। तुमने असली शक्ति के स्रोत को देख लिया। तुमने! ध्यान रखना। मेरे दिखाने से भी तुम देख सकते हो, वह उधार होगा। मेरी बात के प्रभाव में भी तुम्हें दिख सकता है, वह दर्शन सपने का दर्शन होगा। नहीं, मेरी बात के प्रभाव में नहीं। मेरी बात तो इतना ही करवा दे कि तुम जीवन में खोजने निकल जाओ और तुम जीवन को खुली आंख से देखने लगो, बस काफी है। जीवन में जिस दिन तुम देख लोगे कि निर्बलता कठोरता पर विजय पा लेती है, स्त्री पुरुष पर जीत जाती है, विनम्र अहंकारी पर जीत जाता है, ना-कुछ जिसके पास सब कुछ है उसे हरा देता है, भिक्षु के भीतर तुम जिस दिन छिपे सम्राट को देख लोगे, उस दिन अभ्यास करना पड़ेगा? फिर क्या तुम निर्बल होने का अभ्यास करोगे? अभ्यास की बात ही क्या रही! यह तो ऐसे ही है कि तुम पत्थर हाथ में लेकर चल रहे थे और एक दिन अचानक जीवन ने तुम्हें उस खदान के निकट पहुंचा दिया जहां हीरे-जवाहरात भरे थे, तुम्हें दिखाई पड़ गया कि यह जो हाथ में तुम लिए हो वह पत्थर है। क्या तुम उसे छोड़ने का अभ्यास करोगे? क्या तुम किसी गुरु के पास जाकर कहोगे कि कैसे अब इस पत्थर को छोडूं? छोड़ने का भी कहीं कोई अभ्यास करना पड़ता है? पकड़ने का अभ्यास करना पड़ता है, छोड़ना तो क्षण में हो जाता है। पकड़ने का अभ्यास करना पड़ता है। छोड़ दोगे तुम। पूछने जाओगे किसी से? छोड़ दोगे, यह कहना भी ठीक नहीं है। छूट जाएगा; दिखते ही छूट जाएगा। हाथ खुल जाएंगे; पत्थर गिर जाएगा। हाथ बंधे थे इसलिए कि सोचा था हीरा है। हाथ खुल जाएंगे, जैसे ही दिखाई पड़ जाएगा हीरा नहीं है। शक्ति की तलाश में तुम भटकते रहे हो जन्मों-जन्मों से। उसको तुमने हीरा समझा है। जिस दिन तुम देखोगे कि निर्बलता बल है, उसी क्षण पत्थर हाथ से गिर जाएगा। अचानक तुम पाओगे सब बदल गया। अभ्यास की कोई जरूरत नहीं है। अभ्यास का तो कोई प्रयोजन ही नहीं है। ऐसे ही जैसे तुम्हें बाहर जाना होता है तो तुम दरवाजे से निकल जाते हो। तुम सोचते भी नहीं, कहां है दरवाजा? पूछते भी नहीं, कहां है दरवाजा? सोच-विचार भी नहीं करते, कैसे निकलें? बस निकल जाते हो। दरवाजा-तुम्हें दिखाई पड़ता है। अब क्या पूछना है? क्या सोचना है? अंधा आदमी निकलना चाहे इस कमरे के बाहर तो पहले पूछेगा, कहां है दरवाजा? टटोलेगा। सोचेगा कि जिस आदमी से पूछा है यह विश्वसनीय है या नहीं! कहीं मजाक तो नहीं कर रहा है कि अंधे को टकरवा दे और 337
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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