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ताओ उपनिषद भाग
फटे-पुराने थे, लाका कैसे हुई? उस
भी दिए। तुम्हारी
कबीर ने कहा है : दोनों हाथ उलीचिए, यही संतन का काम।
उलीचते जाओ! और जैसे कोई कुएं को उलीचता है, और नये जल-स्रोत के झरने निकलते आते हैं, और कुआं फिर भर गया, फिर भर गया, फिर भर गया। ऐसा संत अपने को बांटता जाता है। और उसके पास इतना है कि वह सारे संसार के लिए देने के लिए पर्याप्त है। वह संपदा और! वह संपदा बांटने से बढ़ती है। इस संसार की संपदा बांटने से घटती है।
एक भिखारी एक द्वार पर खड़ा है। घर की गृहिणी ने उसे भोजन दिया, कपड़े दिए। उसे उस पर बड़ी दया आई। और दया का कारण यह था कि उसके चेहरे से बड़ा संपन्न होने का भाव था, जैसे कभी उसके पास संपत्ति रही हो, सुविधा रही हो। उसके चेहरे पर संस्कार था, एक कुलीनता थी। वह भिखारी मालूम नहीं पड़ता था। उसके कपड़े फटे-पुराने थे, लेकिन भीतर से एक सुसंस्कृत व्यक्ति की आभा थी। भोजन के बाद, कपड़े देने के बाद उस गृहिणी ने पूछा, तुम्हारी यह दशा कैसे हुई? उस आदमी ने कहा, जल्दी ही तुम्हारी भी हो जाएगी। इसी तरह हुई! जो आया द्वार पर उसको ही दिया; मांगा भोजन तो कपड़े भी दिए। तुम्हारी भी हो जाएगी।
इस संसार की संपत्ति को बांटो तो घटती है। अगर ठीक से समझो तो उसको संपत्ति ही क्या कहना जो बांटने से घट जाए? वह विपत्ति है, संपत्ति है नहीं। जो बांटने से घट जाए वह संपत्ति ही नहीं है। क्योंकि संपत्ति का तो तभी पता चलता है जब तुम बांटो और बढ़े।
संत के पास एक संपत्ति है—उसके आनंद की, उसके ध्यान की, उसकी समाधि की-जो जितनी बांटी जाए उतनी बढ़ती है। उसे घटाने का कोई उपाय नहीं। उसके घटाने का एक ही उपाय है कि उसे मत बांटो। तो वह सड़ जाती है। इसीलिए तो बुद्ध चले जाते हैं जंगल, जब वे अज्ञानी हैं; महावीर चले जाते हैं पहाड़ों में, जब वे अज्ञानी हैं; जीसस एकांत में, मोहम्मद एकांत में। और जब संपदा बरसती है उन पर तो भागे हुए बाजार में आ जाते हैं। क्योंकि अब बांटना पड़ेगा। पाने के लिए अकेला होना जरूरी था। बांटने के लिए तो दूसरे चाहिए। इसलिए समस्त ज्ञानी पुरुष ज्ञान की खोज में एकांत में जाते हैं। लेकिन फिर क्या होता है? ज्ञान को पाते ही तत्क्षण भागते हैं समाज की तरफ। क्योंकि सड़ जाएगा स्रोत; जिस कुएं से कोई पानी न भरेगा, वह गंदा हो जाएगा। अब चाहिए कि कोई पानी भरे, अब लोग आएं और अपने प्यास के घड़े लटकाएं संत के हृदय में-भरें, उलीचें। संत द्वार-द्वार जाता है बांटने को, देने को। जो भी राजी हो उसे देने को वह तैयार है। और कभी-कभी तो ऐसी घड़ी आ जाती है कि तुम चाहे राजी न भी हो, वह देता है। क्योंकि सवाल तुम्हारे लेने का नहीं है, सवाल उसके देने का है। अन्यथा सड़ेगा।
तिब्बत में एक बहुत बड़ा संत हुआ, मिलरेपा। उसने जिंदगी भर इनकार किया लोगों को समझाने से। शास्त्र न लिखा; न किसी को समझाए। और जब भी कोई उसका शिष्य बनने आए तो वह ऐसी कठिन शर्ते बताए कि कोई शिष्य न हो सके। उसकी शर्तों को पूरा करना मुश्किल।
फिर उसके मरने का दिन आया और उसने घोषणा कर दी कि तीसरे दिन मैं मर जाऊंगा। और जो आदमी पास था उससे कहा कि तू भाग कर बाजार में जा और जो भी राजी हो लेने को उसको बुला ला। पर उस आदमी ने कहा कि जीवन भर तो आप ऐसी शर्ते लगाते रहे कि हजारों लोग आए, लेकिन शर्ते ऐसी कठिन थीं कि कौन पूरा करे! कोई पूरा न कर सका तो आपने किसी को शिष्य की भांति स्वीकार न किया, न किसी को दीक्षा दी। अब आप क्या आखिरी वक्त में दिमाग आपका खराब हो गया है? आप कहते हैं किसी को भी! क्या मतलब? शर्तों का क्या होगा?
उसने कहा, तू शर्तों की फिक्र छोड़। वे शर्ते तो इसलिए थीं कि मेरे पास था ही नहीं। अब मेरे पास है। और अब इसकी फिक्र छोड़ कि कौन लेने को राजी है या कौन नहीं। जो तुझे मिल जाए! तू बाजार में डुंडी पीट दे कि मिलरेपा बांट रहा है; आ जाओ। और जिसको भी लेना हो आ जाए।
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