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________________ संत संसार भर को देता हैं, और बेशर्त 319 एक ऐसी घड़ी आती है जब तुम्हारे पास इतना होता है कि बांटे बिना न चलेगा, बोझ हो जाएगा। संत के पास इतना है कि सारे संसार को देने के लिए पर्याप्त है; क्योंकि वह घटता नहीं । उसी संपदा को खोजो जो देने से कम न होती हो। तभी तुम सम्राट हो सकोगे, अन्यथा तुम भिखारी रहोगे। जो देने से कम होती हो वह संपदा तुम्हें भिखारी ही बनाए रखेगी। छोटे-बड़े, गरीब-अमीर, पर रहोगे भिखारी ही । बड़े से बड़ा अमीर भी भिखारी ही रहता है। क्योंकि उसकी संपदा देने से घट जाएगी। तो वह मांगता ही रहता है : लाओ ! वह बुलाता ही रहता है कि आओ, और लाओ ! उसके और की दौड़ कम नहीं होती। क्योंकि मांगने से बढ़ती है, छीनने से बढ़ती है संपदा देने से घटती है। संत के पास एक संपदा है जो देने से बढ़ती है, बांटने से बढ़ती है। 'केवल ताओ का व्यक्ति । इसलिए संत कर्म करते हैं, लेकिन अधिकृत नहीं करते। संपन्न करते हैं, लेकिन श्रेय नहीं लेते। उन्हें वरिष्ठ दिखने की कामना नहीं है।' 'संत कर्म करते हैं, लेकिन अधिकृत नहीं करते।' वे देते हैं, लेकिन देकर इतना भी नहीं चाहते कि तुम उनके अनुगृहीत हो जाओ। क्योंकि वह तो अधिकृत करना होगा, वह तो तुम पर मालकियत करनी होगी। यह बड़ी अनूठी बात है। संत देते हैं और तुम्हीं को मालिक बनाते हैं। संत देते हैं और इतना भी नहीं चाहते कि तुम उनके अनुगृहीत हो जाओ । उतना भाव भी संतत्व में कमी होगी । तुम धन्यवाद दो, उसकी भी आकांक्षा हो तो अभी संत संसार का ही हिस्सा है। तब वह तुम्हारे धन्यवाद की संपत्ति जोड़ रहा है। संत का अर्थ ही यह है कि तुम उसे अब कुछ भी देने में समर्थ नहीं रहे; वह तुम्हारे देने की सीमा के बाहर हो गया। तुम अपना सब कुछ भी दे डालो तो भी संत तुम्हारे देने की सीमा के बाहर हो गया है। और संत तुम्हें जो भी दे रहा है, वह ऐसा है कि तुम उसे लेने में डरना मत । तुम लेने में भी डरते हो। क्योंकि तुम्हें लगता है, जिससे भी लेंगे उसके अनुगृहीत हो जाते हैं, एक ऑब्लिगेशन हो जाता है। तुमने केवल संसार की चीजें ली हैं। तो किसी से अगर दो पैसे ले लिए तो उसका भार तुम्हारी छाती पर बैठ जाता है। वह आदमी रास्ते पर मिलता है तो इस भांति देखता है कि दो पैसे दिए हैं। इसलिए इस संसार में तुम्हें जो भी कुछ दे देता है वह तुम्हें अधिकृत कर लेता है, पजेस करता है। वह कहता है, मैंने तुम्हें प्रेम दिया। दूसरों की तो बात छोड़ दो, मां, जिसका प्रेम शुद्धतम कहा जाता है, वह भी अपने बेटे से कहती है कि मैंने तुझे पाला-पोसा, बड़ा किया, इतना तेरे लिए श्रम उठाया, गर्भ में ढोया, कष्ट पाए, और तू कुछ भी नहीं कर रहा है ! तो मां का प्रेम तक जहां अधिकृत करता हो तो वहां दूसरे प्रेमों का तो क्या कहना ? और घृणा की तो बात ही क्या पूछनी है ? यहां तो तुम्हें कोई कुछ देता है सिर्फ इसीलिए ताकि तुम्हें अधिकृत कर ले। कब्जा करना चाहता है। यहां देना तो राजनीति का हिस्सा है। इसलिए तुम संतों से लेने में भी डरते हो। तुम भयभीत होते हो कि कहीं इनसे लिया, ऐसा न हो कि अधिकृत हो जाएं। लेकिन संत तो वही है जो पजेस नहीं करता, अधिकृत नहीं करता । ऐसी कथा है कि जुन्नून एक सूफी फकीर हुआ। वह इतना परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया कि देवदूत उसके द्वार पर प्रकट हुए। और उन्होंने कहा कि परमात्मा ने खबर भेजी है कि हम तुम्हें वरदान देना चाहते हैं, तुम जो भी वरदान मांगो मांग लो। जुनून ने कहा, बड़ी देर कर दी कुछ वर्ष पहले आते तो बहुत मांगने की आकांक्षाएं थीं। अब तो हम परमात्मा को दे सकते हैं। अब तो इतना है। उसकी कृपा वैसे ही बरस रही है। अब हमें कुछ चाहिए नहीं । उसने वैसे ही बहुत दे दिया है, इतना दे दिया है कि अगर उसको भी कभी जरूरत हो तो हम दे सकते हैं। लेकिन देवदूतों ने जिद्द की। ऐसा घटता है । जब तुम नहीं मांगते तब सारी दुनिया देना चाहती है, सारा अस्तित्व देना चाहता है। जब तुम मांगते थे, हर द्वार से ठुकराए गए। देवदूतों ने कहा कि नहीं, यह तो ठीक न होगा।
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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