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________________ जीवन कोमल है और मृत्यु कठोर मैंने फिक्र नहीं की है कि मैं अपना ही विरोध कर रहा हूं, कि आज कुछ, कल कुछ। जब तुम शास्त्र बनाने बैठोगे, तुम पागल हो जाओगे। तुम मुझमें से सिद्धांत निकाल ही न सकोगे। मैंने इंतजाम कर दिया पूरा। लेकिन प्रेम इतना अंधा है कि मेरे इंतजाम को तोड़ सकता है। क्योंकि जब तुम किसी आदमी को प्रेम करते हो तो तुम उसका विरोध देख ही नहीं पाते, उसका विरोधाभास भी नहीं देख पाते। वह खुद अपने ही सिद्धांतों के विपरीत बोल रहा है, यह भी नहीं देख पाते। तुम भरोसा रखते हो कि वह ठीक ही बोल रहा होगा, संगत ही बोल रहा होगा; सब ठीक ही होगा। क्योंकि प्रेम ठीक तो पहले मान लेता है, फिर विचार करता है। डर है कि तुम शास्त्र बना लो। उससे मुझे कोई नुकसान नहीं है। मेरा उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। लेकिन तुम मर जाओगे। शास्त्रों के नीचे दब कर बहुत लोग मर चुके हैं। तुम मत मरना। उसका होश रखना। _ 'जब वस्तुएं और पौधे जीवंत हैं, तब वे कोमल और सुनम्य होते हैं; और जब वे मर जाते हैं, वे भंगुर और शुष्क हो जाते हैं।' ___ इसलिए पंडितों को तुम सदा शुष्क पाओगे, तुम वहां रसधार न पाओगे। तुम वहां तर्क तो बहुत पाओगे, काव्य तुम्हें बिलकुल न मिलेगा। पंडित बिलकुल शुष्क होगा। क्योंकि पंडित से ज्यादा मुर्दा और क्या होता है? बुद्ध में तो एक काव्य है; शब्दों में एक लय है, एक सौंदर्य है। तुम पाओगे कि शब्द किसी भीतर की आर्द्रता से आ रहे हैं, गीले हैं। अभी भी ओस सूखी नहीं है। लेकिन पंडित के शब्द बिलकुल सूखे हैं। तुम अगर बुद्ध के शब्दों को जलाओगे तो धुआं ही धुआं पैदा होगा। बहुत गीले हैं, प्रेम से भरे हैं। लेकिन अगर तुम पंडित के शब्दों को जलाओगे तो अग्नि बिलकुल ठीक से जलेगी; जरा भी धुआं पैदा न होगा। बिलकुल सूखे हैं; भीतर कोई रसधार ही नहीं है। उधार हैं; भीतर से आए ही नहीं हैं, जीवन में डूबे ही नहीं हैं। उन्होंने जीवन का पानी जाना ही नहीं है, केवल तर्क की सूखी धूप जानी है। खयाल रखना, जब भी तुम कुछ बोलो वह तुम्हारे पांडित्य से न आए। अगर पांडित्य से आता है, बेहतर है बिना बोले रह जाना, मत बोलना। जब भी कुछ बोलो तो ध्यान रखना, वह तुम्हारे हृदय से डूब कर आए। और जब भी वह हृदय से डूब कर आएगा, तुम पाओगे उसमें रस है। वह दूसरे को भी भिगाएगा, वह दूसरे को भी अपने में - डुबा लेगा। पंडित दूसरे को हो सकता है कनविंस भी कर दे, कोई सिद्धांत सिद्ध कर दे दूसरे के सामने, लेकिन कभी किसी दूसरे को कनवर्ट नहीं कर पाता। वह कितना ही समझा दे, तर्क दे दे; दूसरा शायद तर्क का उत्तर भी न दे पाए, कसमसाए, लेकिन उत्तर न हो पास तो मानना पड़े कि ठीक है, भाई ठीक है; लेकिन कभी किसी के दूसरे के हृदय को रूपांतरित नहीं कर पाता पंडित। क्योंकि जब अपने ही हृदय से शब्द न आते हों तो दूसरे के हृदय तक नहीं पहुंच सकते। जितनी गहराई से शब्द आता है उतनी ही गहराई तक दूसरे में जाता है। खोपड़ी से आता है, खोपड़ी तक जाता है; कंठ से आता है, कंठ तक जाता है; हृदय से आता है, हृदय तक जाता है। अगर आत्मा से आता है, आत्मा तक जाता है। बस उतनी ही गति होती है दूसरे में, जितनी गहराई से आता है। वही अनुपात। ___ जब भी कोई चीज मर जाती है तो शुष्क हो जाती है। तुमने मरे आदमी की लाश देखी, कैसी अकड़ जाती है! वैसे ही पंडित के शब्द हैं, वैसे ही सांप्रदायिक की मान्यताएं हैं, विश्वास हैं। ___ 'कठोरता और दुर्नम्यता मृत्यु के साथी हैं।' तुम मौत से तो बचना चाहते हो और कठोरता को साधते हो। तुम मौत से तो बचना चाहते हो और अनम्यता को साधते हो। तो तुम एक हाथ से जो बचाना चाहते हो उसी को दूसरे हाथ से मिटाते हो। तुम्हारी गति ऐसी ही है जैसा पश्चिम में अभी मस्तिष्क के सर्जन एक नतीजे पर पहुंचे हैं। वह नतीजा यह है कि आदमी के भीतर दो मस्तिष्क हैं, और दोनों बीच में जुड़े हैं। अगर उनको दोनों को बीच से काट दिया जाए तो एक आदमी दो आदमियों की तरह |295||
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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