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ताओ उपनिषद भाग ६
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अकड़ से मत भर जाना, सख्त मत हो जाना, अन्यथा तुम मृत्यु को बुला रहे हो । लीचपूर्ण बने रहना मरने के आखिरी क्षण तक, और तुम मृत्यु को हरा दोगे। मृत्यु आएगी जरूर, लेकिन तुम्हें मार न पाएगी। क्योंकि मृत्यु केवल उसी को मार पाती है जो सख्त गया। मृत्यु आएगी जरूर, देह भी चली जाएगी; लेकिन तुम अछूते रह जाओगे । तुम्हें मृत्यु छू भी न पाएगी। तुम कमल जैसे रह जाओगे; मृत्यु का जल तुम्हें स्पर्श भी न कर पाएगा – अगर तुम लोचपूर्ण हो। अगर तुम सख्त हो तो ही मरोगे। सख्ती के कारण तुम मरते हो, तुम्हारे कारण नहीं। सख्ती की खोल तुम्हें चारों तरफ से घेर लेती है और कस देती है, और तुम मर जाते हो।
तो न तो संप्रदाय में, न सिद्धांत में, न शास्त्र में, किसी भी चीज में सख्त मत हो जाना। लेकिन सख्ती बड़े अनूठे ढंग से आती है। मुझे तुम सुनते हो, मुझे प्रेम करते हो। कोई मेरे खिलाफ बोलता हो, तुम तत्क्षण संख्त हो जाओगे। मरे ! तुम गए! तुमने मुझसे जीवन न पाया, मौत पाई।
वह भी सही हो सकता है, लोचपूर्ण रहना। उसकी बात भी गौर से सुन लेना, और भी गौर से सुन लेना, जितना कि तुम मुझे प्रेम करने वाले की बात सुनते हो। क्योंकि मुझे प्रेम करने वालों से तुम्हारा मिलना ज्यादा होगा। तुम उनके बीच घूमोगे। उनसे तुम्हारी मैत्री होगी। लेकिन, जो मुझे घृणा करता हो उसकी बात बहुत गौर से सुन लेना। क्योंकि वह एक दूसरा पहलू प्रकट कर रहा है। और सत्य बड़ा है। तुम यह मत कहना कि तुम गलत हो । वह भी सही हो सकता है। उसकी बात इतने गौर से सुनना और कोशिश करना कि उसमें भी कुछ सत्य हो तो निकाल लो।
असल में, सत्य के खोजी को सत्य की खोज है। कहां से मिलता है, यह क्या देखना है? प्यासा पानी चाहता है। नदी का है कि कुएं का है कि नल से आता है कि वर्षा का है, क्या लेना-देना? प्यासे को पानी चाहिए। सत्य के प्यासे को सत्य की खोज है। वह अपना द्वार बंद नहीं करता, सब तरफ से खुला रहता है। और जो भी आए, सत्य का खोजी उसमें से अपने सत्य के पानी को खोज लेता है। और उसे धन्यवाद दे देता है।
और अगर तुम जो मुझे गाली दे रहा हो, उसको भी धन्यवाद दे सको, तो तुमने उसे भी बदलने की शुरुआत कर दी। वह तुम्हें न मार पाया; तुमने उसे जीवन देना शुरू कर दिया। क्योंकि वह चौंकेगा। वह भरोसा न कर सकेगा। उसे हिला दिया। तुम मेरे कारण कोई संप्रदाय अपने आस-पास मत बना लेना। तुम मुझे प्रेम करना, लेकिन मुझे तुम्हारा कारागृह मत बना लेना। और प्रेम मंदिर भी बन सकता है और कारागृह भी । तुम्हारे हाथ में है । अगर प्रेम लोचपूर्ण बना रहे तो मंदिर है और अगर लोच खो जाए तो कारागृह है। और फासला बहुत बारीक है । और एक-एक कदम सम्हल कर चलोगे तो ही बच पाओगे । अन्यथा संप्रदाय से बचना बहुत मुश्किल है; करीब-करीब असंभव है। क्योंकि जिसको भी हम प्रेम करते हैं, बस हम प्रेम करते हैं और अंधे हो जाते हैं।
और तुम दूसरे अंधों को पहचान लोगे, लेकिन अपना अंधापन तुम्हें पहचान में न आएगा। तुम पहचान लोगे कि यह आदमी पागल है महावीर के पीछे, यह आदमी पागल है बुद्ध के पीछे, यह आदमी पागल है कृष्ण के पीछे, तुम दूसरों को पहचान लोगे। लेकिन दूसरों को पहचानने से कुछ सार नहीं है। अपना खयाल रखना कि तुम कहीं किसी संप्रदाय में तो नहीं बंध जाते हो! तुम कहीं मेरे शब्दों को शास्त्र तो नहीं बना रहे हो!
इसलिए मैं रोज अपने भी विरोध में बोले चला जाता हूं, ताकि तुम शास्त्र बना ही न पाओ। जब तुम शास्त्र बनाने बैठोगे, तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। मैंने करीब-करीब सब बातें कह दी हैं जो कही जा सकती थीं। कृष्ण ने तो एक पहलू कहा है, इसलिए शास्त्र बन सकता है। लाओत्से ने एक पहलू कहा है, शास्त्र बन सकता है। कृष्णमूर्ति, जो कि शास्त्र के बिलकुल विपरीत हैं, उनका शास्त्र निश्चित बनेगा। क्योंकि उनसे ज्यादा कंसिस्टेंट और संगत आदमी खोजना मुश्किल है। चालीस साल में एक बात के सिवा उन्होंने कुछ कहा ही नहीं है । वे उसी को दोहरा रहे हैं। मेरा तुम शास्त्र न बना सकोगे, क्योंकि जो भी कहा जा सकता है वह सब मैंने कह दिया है। इसकी बिलकुल