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ताओ उपनिषद भाग ६
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ऐसी स्थिति भी आती है कि चुनाव अच्छी अहिंसा और बुरी अहिंसा के बीच होता है। और यही मैं फर्क करता हूं महावीर और गांधी की अहिंसा में । महावीर की अहिंसा, बात और उसके भीतर अभय है; वह अच्छी अहिंसा है। गांधी की अहिंसा, बात और उसके भीतर भय है और कायरता है। वह बुरी अहिंसा है।
तो चार चीजें हैं संसार में। हिंसा और अहिंसा दो चीजें ही होतीं तो आसान हो जाता मामला; जटिल है मामला। यहां अच्छी अहिंसा भी है, रुग्ण अहिंसा भी है। यहां स्वस्थ हिंसा है और रुग्ण हिंसा भी है। और इन चारों के बीच केवल वही चुनाव कर सकता है जिसकी अंतःप्रज्ञा बहुत थिर हो गई हो। जब तुम चीजों के आर-पार देखने में समर्थ हो जाओगे तुम्हारे ध्यान से, तभी तुम्हें साफ हो पाएगा। क्योंकि बुरी अहिंसा भी अहिंसा मालूम पड़ती है और अच्छी हिंसा भी हिंसा मालूम पड़ती है। इसलिए तुम्हें या तो मोहम्मद और कृष्ण हिंसक मालूम पड़ेंगे, अंगर तुम अच्छी हिंसा को देखने में समर्थ नहीं हो। और या तुम्हें गांधी अहिंसक मालूम पड़ेंगे, अगर तुम बुरी अहिंसा को पहचानने में समर्थ नहीं हो ।
तुम्हारी प्रज्ञा इतनी गहन जब हो जाएगी, जब विचार शांत हो जाएंगे और तुम्हारा मन का दर्पण उजला होगा, धूल हट गई होगी, तभी तुम देख पाओगे। और तब तुम हर जगह यह बात पाओगे कि यहां अच्छा चरित्र भी है और बुरा चरित्र भी है; यहां अच्छे अपराधी हैं, बुरे अपराधी भी हैं; यहां संत भी अच्छे हैं और बुरे संत भी हैं। क्योंकि तुम्हें यह लगेगा कि यह तो बड़ी मैं अटपटी बात कह रहा हूं, क्योंकि संत यानी अच्छा। लेकिन संतत्व भी अगर भय पर खड़ा हो तो बुरा और असंतत्व भी अगर अभय पर खड़ा हो तो अच्छा।
जीवन थोड़ा जटिल है; उतना सरल नहीं जितना तुम गणित को सरल पाते हो। और जीवन की जटिलता को पहचानने की क्षमता जब तक विकसित न हो, तब तक बहुत सी बातें जो मैं तुमसे कहता हूं, तुम समझ न पाओगे । और डर यह है कि तुम कहीं उलटा न समझ लो। इसलिए बहुत होश से मेरे साथ चलना, क्योंकि बहुत बार मैं बहुत खतरनाक रास्ते पर चलता हूं। चलना जरूरी है, क्योंकि ऐसे ही चल चल कर तुम्हारा अभ्यास भी होगा और 'खतरनाक रास्ते भी सुगम और सरल हो जाएंगे।
आखिरी सवाल : एक मित्र ने पूछा है कि अठारह वर्ष की उम्र से, कँसे प्रबुद्ध हो जाएं, इसकी ही उत्कंठा रही हैं। प्रबुद्धता तो नहीं मिली, एक सतत सिरदर्द पैदा हो गया है, एक तनाव, एक बेचनी । और वह बेचनी धीरे-धीरे चौबीस घंटे का सिरदर्द बन गई हैं। तो अब क्या करें ?
बन ही जाएगी। क्योंकि प्रबुद्धता को पाने की आकांक्षा प्रबुद्धता के पाने में बाधा है। तुम उसे इस तरह न पा सकोगे, चाह कर न पा सकोगे। क्योंकि चाह तो तनाव पैदा करेगी; तनाव सिरदर्द बन जाएगा। और इस संसार की चीजों को पाना हो तो शायद तुम कोशिश करके पा भी लो; उस संसार की चीजें तो तुम्हारी मौन दशा में ही अव होती हैं। उनको पाने का ढंग ही यही है कि तुम्हारे भीतर पाने वाला भी खो जाए। अन्यथा सिरदर्द पैदा हो जाएगा।
अब क्या किया जाए ?
प्रबुद्धता को पाने का खयाल छोड़ दो। इस क्षण आनंदित और शांत होने की फिक्र लो। कल की बात ही मत पूछो और कल की बात ही मत सोचो। यह क्षण आनंद में बीत जाए, काफी । क्योंकि दूसरा क्षण इसी क्षण से तो पैदा होगा। अगर यह क्षण आनंद में बीत गया तो दूसरा क्षण भी अपने आप और गहरे आनंद में बीतेगा। आएगा कहां से दूसरा क्षण ? दूसरा क्षण भी तुमसे ही पैदा होता है। तुम अगर प्रसन्न हो अभी तो कल भी प्रसन्न होओगे। तुम कल की बात ही मत पूछो। आज जीओ! और जो व्यक्ति भी आज जीता है, उसके सिरदर्द खो जाते हैं।