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ताओ उपनिषद भाग ६
मन की जरूरतें जब पूरी होने लगती हैं। सुन लिया बहुत संगीत, थोड़ी शांति मिली; लेकिन वह शांति और बड़ी शांति की आकांक्षा जगा गई। थोड़ा सा स्वाद पाया ध्यान का, अब संगीत काफी नहीं मालूम पड़ता। अब तो उस संगीत में जाना है जो शाश्वत है, जो आदमी के द्वारा पैदा नहीं होता, जो परमात्मा से उठता है। अब तो उस संगीत में खो जाना है जिसके स्वर भी शून्य हैं। पढ़ा काव्य को, गीत गाए, गुनगुनाए, पक्षियों के गीत सुने, खिलते फूलों को देखा, सौंदर्य को पहचाना, स्वर को जाना, लय की समझ आई, छंद का बोध हुआ; लेकिन सब कम पड़ जाएगा!
मन तो केवल झलक देता है, क्योंकि मन तो दर्पण है। उसमें तो प्रतिबिंब बनते हैं। लेकिन प्रतिबिंब अच्छे हैं। अगर तुम प्रतिबिंब में ही उलझ गए तो खतरा है। जिसके प्रतिबिंब बनते हैं मन में, अगर दर्पण में देख कर तम उसकी यात्रा पर निकल गए, दर्पण की तरफ कर ली पीठ, खोजने लगे उसको जिसकी छाया पड़ती थी दर्पण में। संगीत में सुना था कुछ, वह छाया ध्यान की है।
इसलिए संगीत सुनते कभी-कभी एकदम ध्यान लग जाएगा; सुनते-सुनते ही सब शांत हो जाएगा। फूल को देखते-देखते फूल भूल जाएगा; कोई सौंदर्य सब तरफ से घेर लेगा। दर्पण को छोड़ कर तीसरी यात्रा शुरू होती है-तीसरा पायदान–कि मन में जिसकी छाया बनती थी, अब हम उसको खोजने निकलते हैं। मन की आवश्यकताएं जब पूरी हो जाती हैं तो लोग आत्मा की आवश्यकताओं में उठते हैं। तब प्रार्थना, पूजा, अर्चना, ध्यान, उनका रस लगता है। तब संन्यास।
भूखा आदमी गीत भी नहीं समझ सकता। भूखे के कान पर तुम वीणा बजाओ तो उसे सिर्फ स्वरों.का उत्पात मालूम पड़ेगा। भूखा आदमी कहेगा, बंद करो! अभी यह क्षण सुनने का नहीं। बंद करो यह वीणा! इससे चोट पड़ती है। इससे हृदय में घाव होता है। भूखा आदमी चांद को भी देखे तो चांद भी उदास मालूम पड़ता है। भूखा आदमी फूल को भी देखे तो फूल को भी खा जाने का मन होता है, फूल के सौंदर्य को अनुभव करने का नहीं।
जैसे शरीर की जरूरत पूरी होती है, मन की जरूरत उठती है। जो लोग शरीर की जरूरत में ही उलझे रह जाते हैं, उसे वासना बना लेते हैं, वे अभागे हैं। उन्होंने पहले पायदान को ही घर बना लिया। वह सीढ़ी थी, उससे आगे जाना था। अभी बहुत रहस्य बाकी थे। वे भवन के बाहर सीढ़ियों पर ही मकान बना कर रह गए। आवश्यक था सीढ़ियों को पार करना, लेकिन सीढ़ियों पर रुक जाना नहीं। जिसने आवश्यकता को वासना बना लिया, वह सीढ़ियों पर रुक जाएगा। वह जिंदगी भर खाने में लगा रहेगा, कपड़े पहनने में लगा रहेगा, मकान बनाने में लगा रहेगा। बहुत लोग उसी तरह सीढ़ियों पर जीवन बिता रहे हैं। उनके दुर्भाग्य की सीमा नहीं है। उन्हें पता ही नहीं कि सीढ़ियां आगे ले जाती हैं; सीढ़ियां कोई घर नहीं हैं।
दूसरी जगह है मन। कुछ लोग मन में खो जाते हैं। फिर उनका यही राग-रंग हो जाता है-संगीत सुनना है, चित्र देखने हैं, फिल्म, उपन्यास। जरूरी था, लेकिन काफी नहीं। उससे भी जागना है; उससे भी ऊपर जाना है। तब कभी ध्यान, संन्यास की महिमा प्रकट होती है। और वह भी सीढ़ी ही है; उसके भी पार जाना है। तब कहीं परमात्मा के जीवन में, परमात्मा के मंदिर में प्रवेश होता है। तब नदी सागर में गिरती है।
लाओत्से कहता है, 'लोग मृत्यु से भयभीत नहीं हैं।' ।
क्योंकि जो व्यक्ति मृत्यु से भयभीत हो जाएगा, वह तो धार्मिक हो जाएगा। मृत्यु का भय तो तभी पकड़ता है जब जीवन की सब जरूरतें पूरी हो जाती हैं। मृत्यु का भय तो दूसरे चरण पर पकड़ता है। जब शरीर भूखा होता है तब तो जीवन ही तुम्हारे पास नहीं, मृत्यु की तुम क्या चिंता करोगे? अभी पेट भरना है; मृत्यु की कौन फिक्र करता है? अभी तो तुम आजीविका जुटाने में लगे हो, अभी जीवन ही नहीं थिर हो पाया; मरने की बात ही कहां सोचने की सुविधा है?
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