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राजनीति को उतारो सिंहासन से
बड़ी महत्वपूर्ण बात इसके आगे लाओत्से ने कही है, 'लोग मृत्यु से भयभीत नहीं हैं, क्योंकि वे जीविका कमाने के लिए चिंतित हैं।'
इसे समझें। इस पर मैं निरंतर जोर देता रहा हूं।
मनुष्य की सीढ़ी के तीन पायदान हैं। पहला उसका शरीर; दूसरा उसका मन; तीसरी उसकी आत्मा। और इन तीन पायदानों पर जो चढ़ जाता है, वह चौथे को उपलब्ध होता है, जिसे हम परमात्मा कहते हैं।
जिसकी शरीर की जरूरतें पूरी न होंगी, वह दूसरे पायदान पर न चढ़ पाएगा। जो भूखा है तो हमने कहा है, भूखे भजन न होई गोपाला-वह कैसे भजन करेगा? भूखे को भजन चाहिए नहीं, भोजन चाहिए। और जब प्राणों में भूख भरी हो और रोआं-रोआं भूखा हो, तो तुम कैसे भजन करोगे? तब ब्रह्म की याद न आएगी; तब तो भोजन ही तुम्हारे चारों तरफ घूमता रहेगा। और इसमें तुम्हारा कोई कसूर नहीं है। यह स्वाभाविक है। यह बिलकुल ठीक है। ऐसा होना ही चाहिए। यह प्रकृति का नियम है। इसमें तुम अपने को दोषी मत ठहराना कि मुझे भोजन की याद क्यों आती है जब मैं भजन करने बैठता हूं! साफ है कि तुम भूखे हो। और शरीर पहली जरूरत है। शरीर अगर पूरा न हो तो मन की जरूरतें उठ ही न पाएंगी। भूखे भजन नहीं होता, ऐसा ही नहीं; भूखे चिंतन भी नहीं होता, विचार भी नहीं होता।
अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर बच्चों को ठीक-ठीक भोजन न मिले तो उनका बुद्धि-अंक नीचे रह जाता है, उनका आई.क्यू. नीचे रह जाता है। अगर बच्चों को ठीक-ठीक पौष्टिक आहार न मिले बचपन में तो सदा के लिए उनकी बुद्धि कमजोर रह जाती है; उनकी बुद्धि कभी भी ऊंचाई को उपलब्ध नहीं हो सकती। जीवन-ऊर्जा ही नहीं है इतनी कि उसको इतनी ऊंचाई पर ले जा सके।
शरीर की जरूरतें पूरी जब हो जाती हैं तो मन की जरूरतें पैदा होती हैं। वह दूसरा पायदान है। शरीर की जरूरत है : रोटी, पानी, छप्पर, कपड़ा। बहुत छोटी जरूरतें हैं।
और ध्यान रखना, आवश्यकता और वासना में बड़ा फर्क है। आवश्यकता तो स्वाभाविक है; वासना विक्षिप्त है। भूख लगे तो भोजन करना स्वाभाविक है। लेकिन भोजन के बाद भी अगर कोई चौबीस घंटे भोजन का चिंतन करता रहे और विचार करता रहे, तो आब्सेशन हो गया, तो वह भोजन के पीछे पागल है। भोजन, पेट भर जाए, तब भी कोई खाता चला जाए, तो वह विक्षिप्त है। उसकी चिकित्सा की जरूरत है। वह भोजन से शरीर को मार डालेगा।
जिस चीज की जरूरत पूरी हो जाए, उस जरूरत के पीछे पागल की तरह लगे रहना रोग है। वासना रोग है, आवश्यकता स्वाभाविक है। आवश्यकता पूरी करना और वासना से बचना! आवश्यकता तो रोटी की है, पानी की है; वासना स्वाद की होती है। आवश्यकता तो कपड़ों की है, शरीर ढंकना चाहिए; सर्दी है, गरमी है, जरूरत है। शरीर तो ढंका जा सकता है, लेकिन वासना का शरीर तुम कभी न ढंक पाओगे। कितने ही बहुमूल्य वस्त्र तुम्हारे पास आ जाएं, वासना कायम रहेगी। वासना दुष्पूर है। आवश्यकता की पूर्ति तो बिलकुल सरल है।
तो तुम कैसे तय करोगे, क्या है वासना? क्या है आवश्यकता? सोचना। जो चीज पूरी हो सके वह आवश्यकता है; जो कभी पूरी न हो सके वह वासना है। तुम एक मकान में रहते हो, सोचते हो बड़ा महल हो जाए। तो विचारना कि बड़ा महल होने से और बड़े महल की वासना उठेगी या नहीं? अगर उठेगी तो झोपड़े में ही रहना बेहतर है; कुछ अर्थ नहीं है बड़े महल में जाने से भी। क्योंकि और बड़ा महल पकड़ेगा। वासना के पूरे होने का कोई उपाय नहीं है। आवश्यकता तो बड़ी निर्दोष है, बड़ी सरल है। उसमें कोई जटिलता ही नहीं है। आवश्यकता तो भिखारी की भी पूरी हो सकती है; वासना सम्राट की भी पूरी नहीं होती। वासना का पूरा होना स्वभाव ही नहीं है।
शरीर की जरूरतें पूरी हो जाएं तो मन की जरूरतें पैदा होती हैं। संगीत है, साहित्य है, नृत्य है, काव्य है। जैसे ही शरीर की जरूरतें पूरी होती हैं, मन की जरूरतें आनी शुरू होती हैं।
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