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________________ मुक्त व्यवस्था-संत और स्वर्ग की मारने की जरूरत नहीं है। तुम छोड़ो परमात्मा पर। तुम छोड़ो जीवन के परम रहस्य पर। वह बिना मारे बदलने में समर्थ है। वह बिना मिटाए रूपांतरित करवा देता है। उसकी कला क्या है? उसकी कला कि जब भी तुम पाप करते हो, तुम स्वयं ही पीड़ा पाते हो। पाप में ही उसका दंड छिपा है। कोई तुम्हें दंड नहीं देता, इसलिए तुम प्रतिशोध भी नहीं कर सकते। तुम अपने ही द्वारा दंड पाते हो। अगर कोई तुम्हें दंड न दे तो पाप करके तुम पाओगे तुमने अपने को ही दंडित किया। जैसे सिर फोड़ लिया दीवाल से जब कि दरवाजा खुला था और तुम बिना सिर फोड़े निकल सकते थे। कितनी देर तुम सिर फोड़ते रहोगे? तुम्हारा ही सिर है। तुम कितनी देर तक अपने को पीड़ा में डुबाए रखोगे? कब तक तुम नरक को निर्मित करोगे? स्वर्ग का मार्ग, ताओ-धर्म का मार्ग या परमात्मा का मार्ग-तुम्हें दंडित करना नहीं है, और न तुम्हें पुरस्कृत करना है। तुम्हें छोड़ देना है स्वतंत्र, ताकि तुम अपने ही कृत्यों से दंडित हो जाओ, अपने ही कृत्यों से पुरस्कृत। किसी और के विरोध में प्रतिशोध में तुम्हारे अहंकार के खड़े होने का उपाय भी नहीं छोड़ा गया है। तुम अकेले छोड़ दिए गए हो। तुम्हें पूरा दायित्व दे दिया गया है। तुम्हारी स्वतंत्रता परम है। भोग लो पीड़ा भोगनी हो तो, लेकिन जानना कि तुमने ही चुनी थी। पा लो आनंद अगर पाना हो। पुण्य के साथ आ जाता है आनंद, जैसे फूलों के साथ सुवास; पाप के साथ आ जाती है पीड़ा। जुड़े हैं। कोई और तुम्हें देता नहीं, तुम्हीं देते हो। तुम्हीं बोते हो, तुम्हीं फसल काटते हो। कोई दूसरा बीच में आता नहीं। यही है वह कुशल मार्ग, जिसको लाओत्से कहता है, बिना संघर्ष के विजय में कुशल है। 'बिना शब्द के वह पाप और पुण्य को पुरस्कृत करता है।' बिना शब्द के! कोई आवाज नहीं होती कि तुम दंडित किए जा रहे हो और दंड घटित हो जाता है। कोई न्यायाधीश नहीं बैठा है जो तुम्हें धन्यवाद देता हो, पुरस्कार देता हो, और तुम पुरस्कृत हो जाते हो। 'बिना शब्द के वह पाप और पुण्य को पुरस्कृत करता है।' बिना शब्द के घट रहा है, क्योंकि पाप में ही छिपा है उसका दंड और पुण्य में ही छिपा है उसका पुरस्कार। बाहर नहीं है, बाहर से नहीं आता, तुम्हारे ही कृत्य के भीतर से खिलता है। इसलिए बिना शब्द के घटित हो जाता है। अगर लाओत्से की मानी जा सके बात तो पृथ्वी पर सब दंड और पुरस्कार की व्यवस्थाएं बंद कर दी जानी चाहिए। क्योंकि दंड देकर हम किसी को बदल नहीं पाए; पुरस्कार देकर किसी को बदल नहीं पाए। आदमी गिरता ही गया है। असल में, समाज ने सोचा है कि परमात्मा की व्यवस्था से भी श्रेष्ठ व्यवस्था की जा सकती है। वहीं भूल है। छोड़ दो लोगों को उनके ही कृत्यों पर, ताकि के खुद ही निर्णय ले सकें, ताकि वे खुद ही जान सकें कि कौन सा कृत्य दुख में ले जाता है। किस रास्ते पर कांटे हैं और किन रास्तों पर फूल हैं, उन्हें चुनने दो। कोई दूसरा बीच में न आए। तो जल्दी ही निर्णय हो जाएगा। देर न लगेगी, वे खुद ही जान लेंगे। उलझाव नहीं होगा; सीधी बात होगी। गणित साफ होगा। पर समाज डरता है कि ऐसा लोगों को छोड़ दें तो कहीं बिगड़ न जाएं। मेरे पास लोग आ जाते हैं, बुद्धिमान लोग, विचारशील लोग, वे कहते हैं कि आप जो बातें कहते हैं उससे तो स्वच्छंदता फैल जाएगी। मैं उनसे पूछता हूं, क्या तुम कह सकते हो कि स्वच्छंदता फैली नहीं है? वे कहते हैं, आप जो कहते हैं उससे तो लोग बड़े अपराधी हो जाएंगे। मैं उनसे पूछता हूं, क्या लोग अपराधी नहीं हैं? इससे ज्यादा पाप और क्या हो सकता है दुनिया में? इससे बुरा और क्या हो सकता है जैसा है? वे अकारण डरे हुए हैं, व्यर्थ ही भयभीत हैं। और मजा यह है कि उनकी व्यवस्था के कारण लोग ज्यादा पापी हैं। उनकी व्यवस्था के कारण लोग यह देख ही नहीं पाते कि पाप में उसकी पीड़ा है। तुम पीड़ा देते हो तो उनको लगता है, न्यायाधीश पीड़ा दे रहा है, समाज पीड़ा दे रहा है। तुम्हारी पीड़ा के कारण उनमें विरोध पैदा होता है। विरोध के 215]
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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