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________________ मुक्त व्यवस्था-संत और स्वर्ग की 213 धर्म तो एक ही है। धर्म का अर्थ है स्वभाव, जिसको लाओत्से ताओ कहता है; वह तो एक ही है। वह न नया है, न पुराना है; वह समय के बाहर है। जब भी हम उसे समय में लाते हैं तो रूप देना पड़ता है। रूप पुराने पड़ जाएंगे। जब रूप पुराने पड़ जाएंगे तो रूपों को तोड़ देता है संत पुरुष, नये रूप ले आता है। लेकिन संत को पहचानना कठिन है। क्योंकि तुम्हारी भाषा में भयभीत भी समझ में आ जाता है, निर्भीक भी समझ में आ जाता है। निर्भीक है क्रांतिकारी, भीरु है परंपरावादी । वे दोनों तुम्हारी समझ में आते हैं, क्योंकि वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। संत कठिन होगा समझना : परंपरावादी + क्रांतिकारी । वह दोनों है एक साथ; वह सबको समेट लिया है उसने; न तो क्रांति वर्जित है, न परंपरा वर्जित है । और जब क्रांति और परंपरा का मेल होता है, तभी — केवल तभी - जैसे शरीर और आत्मा का मेल होता है सभी जीवन प्रकट होता है, ऐसे ही परंपरा और आत्मा का जब मेल होता है तभी धर्म प्रकट होता है, धर्म का जीवन प्रकट होता है। परंपरा है शरीर; क्रांति है आत्मा । अगर तुम ऐसी कीमिया बना सको कि तुम परंपरा और क्रांति को, दोनों को एक साथ सम्हाल लो - एक हाथ में क्रांति, एक हाथ में परंपरा - तो ही तुम संतत्व को उपलब्ध हो पाओगे। तब तुम में वे सारे गुण होंगे जो निर्भीक के हैं और वे दुर्गुणन होंगे जो निर्भीक के हैं; वे सारे गुण होंगे जो भीरु के हैं और वे दुर्गुण न होंगे जो भीरु के हैं । तब तुमने सदगुणों का समुच्चय पैदा कर लिया। 'यद्यपि स्वर्ग कुछ लोगों को नापसंद कर सकता है, तो भी कौन जानता है कि किन्हें मारा जाए और क्यों ?" लाओत्से कहता है कि उस परम स्वभाव के कुछ लोग अनुकूल होंगे, कुछ लोग प्रतिकूल होंगे। जो प्रतिकूल होंगे वे अपने आप ही कष्ट पाते रहेंगे। लेकिन कौन निर्णय करे कि किसे मारा जाए? क्यों मारा जाए? 'संत पुरुष भी इसे कठिन प्रश्न की तरह लेते हैं।' साधु-असाधु के तो बस के बाहर है यह तय करना । क्योंकि साधु का तो निर्णय पहले से है कि असाधु को मारा जाए और असाधु भी निर्णीत है कि साधुओं को मिटाया जाए। उनका द्वंद्व तो साफ है। 'संत पुरुष भी इसे कठिन प्रश्न की तरह लेते हैं।' किसे मारा जाए ? किसे बचाया जाए? क्यों ? यह जटिल है प्रश्न और जितना तुम्हारा ज्ञान गहन होगा उतना ही 'जटिल होता जाता है। क्योंकि एक ऐसी घड़ी आती है तुम्हारे परम ज्ञान की जब तुम देखते हो कि चीजें प्रतिपल अपने से विपरीत में रूपांतरित होती रहती हैं। जिस असाधु को तुमने आज मार दिया, क्या तुम निश्चित हो सकते हो कि वह कल साधु न हो जाता? क्योंकि हमने बाल्मीकि को साधु होते देखा है असाधु से। तो इस असाधु को मारने में तुम्हारा क्या निर्णय है कि यह कल साधुं न हो जाता ? कौन कह सकता है कि तुमने असाधु मारा और कल होने वाला साधु नहीं मार दिया? बहुत असाधु साधु हुए हैं। वस्तुतः साधु होने का एक ही उपाय है और वह असाधु होने से निकलता है। एक छोटे चर्च में एक पादरी बच्चों को समझा रहा था कि परमात्मा तक पहुंचने का उपाय क्या है, स्वर्ग को पाने का उपाय क्या है, कैसे कोई व्यक्ति परमात्मा की अनुकंपा पा सकता है। आशा कर रहा था कि बच्चे जवाब देंगे; कोई कहेगा प्रार्थना, कोई कहेगा पूजा-अर्चना, कोई कहेगा ध्यान, पुण्य कृत्य, आचरण, सदाचरण । एक छोटे बच्चे ने हाथ ऊपर उठाया। पादरी ने पूछा कि क्या है मार्ग परमात्मा को पाने का ? उसने कहा, पाप । क्योंकि बिना पाप किए प्रायश्चित्त न हो सकेगा। बिना प्रायश्चित्त के कभी कोई उपलब्ध हुआ है । किसे मिटाया जाए ? पापी को तुम मिटा रहे हो तो तुम बीज रूप में पुण्यात्मा को मिटा रहे हो। क्योंकि पापी कभी पुण्यात्मा होगा ही । पापी कब तक पापी रह सकता है ? अगर पापी होने में पीड़ा है तो बस थोड़ी प्रतीक्षा की बात है। धैर्य रखो, मिटाओ मत। पापी अपनी पीड़ा से ही पुण्यात्मा होगा । और तुम मिटा कर उसे पुण्यात्मा न बना सकोगे। क्योंकि जिसे तुमने मिटा दिया उसे तुम प्रतिशोध से भर दोगे ।
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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