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________________ संत स्वयं को प्रेम करते हैं मेरे हिसाब में, अगर तुमने अपने को प्रेम किया तो तुम पाओगे अनंत लोग तुम्हें प्रेम करते हैं। और यह प्रेम बढ़ता जाता है, बढ़ता जाता है। एक दिन अचानक तुम पाते हो कि परमात्मा का प्रेम भी तुम पर बरसा। तुम योग्य होते जाते हो। तुम इतने योग्य होते जाते हो, तुम अपने आप में इतने पूरे होते जाते हो कि वही प्रेम की पूर्णता एक दिन तुम्हारे ऊपर परमात्मा की वर्षा बनेगी। . परमात्मा को खोजने तुम जाओगे कहां? उसका कोई पता-ठिकाना नहीं। सच तो यह है कि परमात्मा तक कोई आदमी कभी नहीं पहुंचता; जब भी घटना घटती है परमात्मा आदमी तक आता है। इसके अतिरिक्त रास्ता भी नहीं है। जिस दिन तुम योग्य हो और तुम अपने प्रेम से इतने परिपूर्ण हो और तुम इतने तृप्त हो अपने प्रेम से कि तुम्हारे जीवन में कोई शिकायत नहीं है, कोई भिक्षा की इच्छा नहीं रही अब, तुम सम्राट हो गए हो; तुम आनंदित हो, जो तुम्हें मिला है बहुत है; ऐसी भाव-दशा में अचानक एक दिन द्वार पर दस्तक पड़ती है-परमात्मा द्वार पर खड़ा है। अपने को प्रेम करो। और तब बड़ी कठिनाई होगी। जैसे-जैसे तुम अपने को प्रेम करोगे तुम अपने को बदलने भी लगोगे, क्योंकि प्रेम के योग्य भी तो बनाना होगा। एक बार तुम्हें यह खयाल आ जाए कि अपने को प्रेम करना है तो तुम्हें बहुत सी क्षुद्रताएं दिखाई पड़ने लगेंगी जो कि प्रेम न करने देंगी। उन क्षुद्रताओं को तुम्हें छोड़ देना होगा। वे तुम्हारी समझ से छूट जाएंगी। अगर तुम्हें अपने को प्रेम करना है तो प्रेम-पात्र के योग्य भी तो बनना होगा। तब तुम पाओगे कि बहुत सी क्षुद्रताएं असंभव हो गई हैं। क्योंकि कैसे तुम कर सकते हो वे क्षुद्रताएं? अगर करोगे तो निंदा शुरू हो जाती है। अगर तुमने जरा सी बात में क्रोध किया तो तुम खुद आत्म-निंदित हो जाओगे कि यह क्या क्षुद्रता है। यह क्या उथलापन है! जरा सी बात में और गरम हो गया। इतनी भी शीतलता न थी कि इतनी सी बात को सह जाता। तुम अचानक पाओगे कि अगर अपने को प्रेम करना है तो क्रोध धीरे-धीरे छूटेगा। अगर अपने को प्रेम करना है घृणा धीरे-धीरे गिरेगी। नहीं तो तुम प्रेम न कर पाओगे। जब अपने को प्रेम करना है तो अपने को तैयार भी करना होगा। तुम धीरे-धीरे अपने को निखारने में लग जाओगे। अब तक तुमने दूसरों के लिए अपने को तैयार किया था, तो तुम बाहर से सजाते थे-अच्छे वस्त्र पहनते थे, गंध छिड़कते थे, फूल बालों में खोंस लेते थे, रंग-रोगन कर लेते थे-बाहर से अपने को सजा-संवार कर जाते थे। जब तुम अपने को प्रेम करोगे तो बाहर की सजावट तो काम न आएगी, क्योंकि तुम तो भीतर हो। और तुम कितना ही रंग ऊपर पोत लो चेहरे के, तुम्हें तो अपना असली चेहरा पता ही है। - नहीं, जब तुम अपने को प्रेम करोगे तो तुम्हें भीतर सजाना पड़ेगा; भीतर का श्रृंगार शुरू होगा। और भीतर का श्रृंगार ही साधना है। 'संत अपने को जानते हैं, पर दिखाते नहीं। अपने को प्रेम करते हैं, पर उछालते नहीं। इसलिए एक को, शक्ति को वे अस्वीकार करते हैं; और दूसरे को, कुलीनता को स्वीकार करते हैं।' संत शक्ति को अस्वीकार करते हैं, शांति को स्वीकार करते हैं। शक्ति को अस्वीकार करते हैं, गहन विनम्रता को स्वीकार करते हैं। क्या है राज इस बात का? शक्ति को वही आदमी स्वीकार करता है जो भयभीत है। भय के कारण तुम शक्ति को स्वीकार करते हो। भय के कारण शक्ति ही तो बचाव बन सकती है। तो तुम चाहते हो धन इकट्ठा कर लूं; समय पड़ेगा, काम आएगा। तलवार खरीद लूं; दुश्मन आएगा, हाथ रहेगी, मौके पर काम आ जाएगी। मित्र बना लूं, क्योंकि शत्रुओं का डर है। किसी पद पर पहुंच जाऊं, क्योंकि पद पर जो आदमी है उसके पास ज्यादा ताकत है। प्रधानमंत्री हो जाऊं, तो उसके पास बड़ी ताकत है, बड़ी फौजें हैं, सुरक्षा है। भयभीत आदमी शक्ति की खोज करता है और शक्ति को मानता है। | पनाहा 199
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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