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________________ संत स्वयं को प्रेम करते है इसलिए सवाल भय से निर्भय हो जाने का नहीं है। जो भयभीत है वह साधु होगा; जो निर्भय हो गया वह असाधु हो जाएगा। जो भयभीत है वह नीति-आचरण से चलेगा; जो निर्भय हो गया वह नीति-आचरण को ताक पर रख देगा। वह डरता ही नहीं, वह किसी से नहीं डरता। जो निर्भय है वह अपराधी हो जाएगा। अब यह बड़ी सोचने जैसी बात है। अगर तुम्हें भयभीत आदमी देखने हैं वस्तुतः तो साधुओं में पाओगे। आश्रमों में बैठे हैं, डरे हुए लोग हैं। इतना डर गए हैं कि बाजार में जा नहीं सकते, दुकान पर बैठ नहीं सकते, स्त्री को देख कर आंख बंद कर लेते हैं। रुपया दिखाई पड़ता है तो उनके हाथ-पैर कंपने लगते हैं। कामिनी-कांचन उनका प्राण लिए ले रहा है। वे डरे हुए लोग हैं। जेलखानों में, कारागृहों में, राजधानियों में, पागलखानों में तुम्हें वह आदमी मिलेगा जो डरा हुआ नहीं है। जो निर्भय है वह असाधु है। राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ, वे सब असाधु हैं। वे डरे हुए नहीं हैं। वे अगर तुम्हारी रामलीला के मैदान पर आ भी जाते हैं, राष्ट्रपति और तुम्हारे प्रधानमंत्री, तो सिर्फ तुम्हें खुश करने को। उन्हें कोई रामलीला से लेना-देना नहीं है। उनको वोट चाहिए। वे तुम्हारे मंदिरों में जाकर सिर भी झुका लेते हैं। वे मंदिरों को सिर नहीं झुका रहे, तुम्हारी नासमझी को सिर झुका रहे हैं। उनको मंदिर में सिर झुकाते देख कर तुम समझते हो कैसे धार्मिक व्यक्ति हैं। जैसे ही उनके हाथ में ताकत आएगी वे खतरनाक सिद्ध होंगे; क्योंकि उनको कोई भय नहीं है। अंधेरे में दो तरह के लोग हैं : भय और निर्भय। अगर अंधेरे में ही चुनना हो तो लाओत्से कहता है, भयभीत होना बेहतर। अंधेरे को चुनने की कोई जरूरत नहीं है। प्रकाश को तुम चुन सकते हो। लेकिन अगर अंधेरे में ही जीने का तय कर लिया हो, कसम खा ली हो, तो फिर भय को चुनना बेहतर। कम से कम भय के कारण दूसरों को नुकसान तो न पहुंचाओगे। हिटलर ने करोड़ों लोग मारे; स्टैलिन ने करोड़ों लोग मारे। जरा भी भय नहीं है। इससे तो वह जैन साधु बेहतर जो चींटी को बचा कर चल रहा है। हालांकि दोनों अज्ञानी हैं। क्योंकि यह खयाल कि तुम मार सकते हो उतना ही गलत है जितना यह खयाल कि तुम बचा सकते हो। दोनों अज्ञानी हैं। क्योंकि कृष्ण कहते हैं, न हन्यते हन्यमाने शरीरे, शरीर को काट डालो तो भी उसे मारा नहीं जा सकता; नैनं छिन्दंति शस्त्राणि, छेद डालो शस्त्रों से तो भी छिदता नहीं। तो बचाना भी भूल है; मारना भी भूल है। ज्ञानी तो जानता है कि मृत्यु होती ही नहीं। लेकिन अज्ञान के जगत में, अंधेरे में, भयभीत! भयभीत होना ही बेहतर है, कम से कम चींटी को बचा कर चल रहे हो। चींटी मरती या न मरती तुम्हारे पैर से, यह सवाल नहीं है लेकिन भय के कारण तुम अपनी सीमा बांध कर जी रहे हो। . जैन साधु अपनी आसनी भी साथ लिए चलते हैं; बिछा कर उसी पर बैठते हैं। एक पुराना भय है कि पता नहीं किसी की आसनी पर बैठो और उस पर स्त्रियां बैठी हों पहले, कोई पापी बैठा हो। तो स्त्रियों के स्त्रैण-अणु छूट जाते हैं; पापी के पाप के अणु छूट जाते हैं। तो अपनी आसनी साथ ही लेकर चलो, उसी पर बैठो।। एक बार ऐसा हुआ कि एक जैन साधु मेरे साथ यात्रा पर थे। हम दोनों कार में बैठे तो वे बाहर ही खड़े रहे। मैंने कहा, आप अंदर आएं। उन्होंने कहा, रुकिए, मेरी आसनी आ जाने दें। मैंने कहा, आसनी का क्या करना है? गद्दी बिलकुल ठीक है। पता नहीं गद्दी पर कौन-कौन बैठा हो! तो गद्दी पर उन्होंने आसनी रख ली, फिर वे आसनी पर बैठ गए। फिर वे निश्चित हो गए। अब कोई भय नहीं है, सुरक्षा है। भयभीत आदमी कैसी छोटी-छोटी सुरक्षाएं बना रहा है। आसनी बचा रही है पाप से। काश, पाप इतना सस्ते में बचता होता! और अब उनको कोई भय नहीं है कि वे मखमल की गद्दी पर बैठे हैं। क्योंकि ऊपर उन्होंने आसनी रख ली है। वे तो आसनी पर बैठे हैं, मखमल की गद्दी से उन्हें क्या लेना-देना? मखमल की गद्दी पर तो मैं बैठा था, वे आसनी पर बैठे थे। 191
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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