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ताओ उपनिषद भाग ६
बन जाएंगी, लोग ठहरेंगे; अस्पताल में मरीजों की चिकित्सा होगी। अच्छा है, कुछ बुरा नहीं है। लेकिन तुम इस भूल में मत पड़ना कि धर्म को उपलब्ध हो जाओगे। अच्छा है, लेकिन काफी नहीं है। अच्छा है, चोरी न करने से धर्मशाला खोल कर बैठ गए; अच्छा है। डाकू न बने और एक आश्रम चलाने लगे; अच्छा है। कम से कम डाकू न बने, इतनी बड़ी कृपा है। लेकिन इसे पर्याप्त मत समझ लेना। इसमें अपने को भटका मत लेना। क्योंकि कुछ लोग हैं जो बुराई में भटक गए हैं, कुछ लोग हैं जो भलाई में भटक गए हैं। कुछ असाधु होकर भटक रहे हैं परमात्मा से, कुछ साधु होकर भटक रहे हैं।
और लाओत्से का भरोसा संत में है; न तो साधु में और न असाधु में। लाओत्से कहता है कि संत ऐसा व्यक्ति है जो अपने में ठहर गया और अब उसके जीवन की सारी गतिविधियां इसी अपने में ठहरे होने से उठती हैं। उससे शुभ ही पैदा होता है, क्योंकि अशुभ पैदा हो नहीं सकता। वह जो भी करेगा वह ठीक होगा। उसे ठीक, सोच-सोच कर करना नहीं पड़ता। वह विचार करके ठीक नहीं करता। वह ऐसा नहीं सोचता कि यह कर्तव्य है इसलिए करूं, यह अकर्तव्य है इसलिए न करूं। ऐसी बात नहीं है। वह तो जैसे पानी ढलान की तरफ बहता है ऐसा संत का स्वभाव शुभ की तरफ बहता है। पानी सोचता थोड़े ही है कि इधर ढाल है इधर चलें, उधर चढ़ाव है उधर जाना ठीक नहीं। चढ़ाव की तरफ जाओगे भी कैसे? संत जिस तरफ बहता है वहीं शुभ है। शुभ के अतिरिक्त वह कहीं बहता ही नहीं। लेकिन पहली घटना है संतत्व की। पहली घटना है भय से प्रेम की तरफ आ जाने की, अंधकार से आलोक की तरफ आ जाने की।
अब हम लाओत्से के वचन को समझने की कोशिश करें। 'जब लोगों को बल का भय नहीं रहता, तब, जैसा आम चलन है, उन पर महाबल उतरता है।'
भयभीत लोगों का समाज, राज्य, नीति, धर्म लोगों को डरा कर ही संयम में बांधे हुए है। इसलिए लाओत्से कहता है कि ऐसे लोग अगर कभी निर्भय हो जाएं तो खतरा पैदा होता है। अंधेरे में जो आदमी है उसका निर्भय हो जाना खतरनाक है। क्योंकि निर्भय होते ही वह ऐसे चलने लगेगा जैसे प्रकाश में आदमी को चलना चाहिए। लेकिन प्रकाश तो है नहीं। टकराएगा, चोट खाएगा; सिर फोड़ लेगा।
तीन शब्द हैं हमारे पास, उन तीनों का स्वभाव समझ लेना चाहिए। एक शब्द है भय, दूसरा शब्द है निर्भय, और तीसरा शब्द है अभय। अभय तो प्रकाशित आदमी का लक्षण है। भय और निर्भय दोनों अंधेरे में होते हैं। अंधेरे में कुछ लोग होते हैं जो भयभीत होते हैं। अंधेरे में कुछ लोग होते हैं जो अपने भय को दबा कर और निर्भय होने की अकड़ बना लेते हैं, जिनको हम बहादुर कहते हैं।
ये बहादुर ज्यादा नुकसान करते हैं, क्योंकि ये ऐसे चलने की कोशिश करते हैं जो कि केवल प्रकाश में ही संभव है। ये अभय की कोशिश करते हैं, और अंधेरे में रहते हुए! उससे निर्भय तो मालूम पड़ते हैं कि बिलकुल नहीं डरते, लेकिन इन्हीं लोगों ने सारे संसार को कष्ट से भर दिया है। हिटलर, नेपोलियन, सिकंदर, ये अभय नहीं हैं; महावीर, कृष्ण, बुद्ध, इन जैसे अभय नहीं हैं। मगर निर्भय हैं। जहां शैतान भी जाने से डरे वहां भी ये घुस जाएंगे। लेकिन ये अपना ही सिर नहीं तोड़ते, ये अपने पीछे हजारों लोगों को भी चला लेते हैं। क्योंकि भयभीत लोग जब भी पाते हैं कि कोई निर्भय है, उसको नेता मान लेते हैं। जब भी भयभीत लोग देखते हैं कि कोई आदमी बिलकुल नहीं डरता तो वे सोचते हैं, यह आदमी ठीक है, इसके पीछे चलो। इस तरह अंधे अंधों के पीछे चलते हैं। ___ कबीर ने कहा है, अंधा अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़त।
अंधे अंधों को चलाते हैं और दोनों कुएं में गिर जाते हैं। इससे तो वे ही अंधे बेहतर हैं जो डरते हैं। कम से कम डर के कारण वे सीमा के बाहर नहीं जाते।
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