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________________ संत स्वयं को प्रेम करते हैं बात और। क्या औरतें भी वहां मौजूद रहेंगी कि सिर्फ आदमी? उसने कहा, औरतें भी रहेंगी। उसने कहा कि फिर कोई फिक्र नहीं; निर्णय हो नहीं सकता। एक दिन में! सारी औरतें! वे इतना कोलाहल मचाएंगी, और इतनी बकवास करेंगी; फिर कोई डर नहीं है। ये सारे सिद्धांत भयभीत आदमी के कारण निर्मित हो गए हैं। न कहीं कोई कयामत का दिन है। और अगर कहीं है तो वह अभी है, इसी वक्त है। निर्णय आखिर में नहीं होगा। आखिर तो है ही नहीं अस्तित्व में। न कोई प्रारंभ है, न कोई अंत है। यह तो अनंत धारा है। जिसका प्रारंभ नहीं है उसका अंत कैसे होगा? आखिर तो कभी आएगा ही नहीं। तो फिर हिसाब कब होगा? हिसाब प्रतिपल होता जाता है। हिसाब करना ही नहीं पड़ता, हिसाब तो नियम से प्रतिपल हो जाता है। तुम उलटे-सीधे चलो, गिरो, पैर टूट जाता है। तुम सम्हल कर चलो, घर बिना पैर तोड़े लौट आते हो। प्रेम को उपलब्ध व्यक्ति जीवन के इस नगदपन को अनुभव कर लेता है तब फिर वह किसी भय के कारण बुराई से नहीं रुकता, न किसी लोभ के कारण भलाई करता है। वरन उसका अनुभव ही उसके जीवन की नीति हो जाती है। वह शुभ करता है, क्योंकि आनंद मिलता है शुभ करने में। करने से नहीं, करने में। और दुख मिलता है बुरा करने में; बुरा करने से नहीं। और प्रतिपल जीवन, जैसा तुम चलते हो, जैसा तुम होते हो, वैसा तुम्हें देता चला जाता है। एक अनूठी नीति का जन्म होता है प्रकाश को उपलब्ध आदमी में। वह नीति, दूसरों के साथ अच्छा करना, इस पर आधारित नहीं होती। क्योंकि प्रकाश को उपलब्ध व्यक्ति दूसरों की तरफ उन्मुख ही नहीं होता। वह नीति निर्मित होती है, क्योंकि अच्छा करने में आनंद है। तुम्हें मैं यह बात कहूं, तुम्हें थोड़ी कठिन लगेगी, लेकिन समझने की कोशिश करना। ज्ञानी से ज्यादा स्वार्थी आदमी संसार में होता ही नहीं। स्वार्थ ही बच रहता है। लेकिन स्वार्थ शब्द बड़ा अच्छा है। उसका अर्थ होता है, स्वयं का अर्थ ही बच रहता है। शेष सब स्वार्थ से ही उठता है। परार्थ भी स्वार्थ की गंध है। दूसरे के साथ अच्छा करो, यह बात ही गलत है। क्योंकि तुम अपने साथ अच्छा नहीं कर सके हो, दूसरे के साथ क्या खाक करोगे? तुम अभी अपने को प्रेम नहीं कर पाए, दूसरे को कैसे प्रेम करोगे? तुम अपने प्रति करुणावान नहीं हो, दूसरे के प्रति कैसे करुणावान हो जाओगे? तुम्हारे भीतर मरुस्थल है और दूसरे के लिए तुम वर्षा का मेघ बनना चाहते हो! तुम भीतर अंधेरे से भरे हो, दीया बुझा है, और दूसरों के बुझे दीयों को जलाने चले हो! तुम कृपा करना, कहीं तुम किसी का जला हुआ दीया मत बुझा देना। तुम अपने मरुस्थल को जरा दूर ही रखना। तुम भला सोचते हो दूसरे पर मेघ बना रहे हैं, तुम अपने मरुस्थल को मत दूसरे पर बरसा देना। स्वार्थ को पहले उपलब्ध हो जाओ। पहले स्वयं का अर्थ समझ लो। पहले स्वयं में ठहर जाओ। पहले भूल जाओ सब को, ताकि तुम अपने को जान सको। और दूसरे तुम्हें बाधा न दें। एक बार तुम्हारे जीवन में स्वार्थ पूरा हो जाए, तुम अपने अर्थ को पूरा जान लो, और तुम्हारे जीवन का दीया जल जाए, फिर परार्थ तो अपने आप उठेगा। जो प्रेम से भरा है वह प्रेम ही दे सकेगा। वह चाह कर भी घृणा नहीं दे सकता, घृणा उसके पास न रही। जो करुणा से भरा है वह करुणा ही दे सकेगा। जो है, तुम वही तो दे सकोगे। जो नहीं है, उसे दोगे कैसे? तब तुम्हारे जीवन में एक परार्थ की गंध होगी जो गहन स्वार्थ से उठती है। स्वार्थ और परार्थ में विरोध नहीं है। परार्थ तो फूल है, स्वार्थ के वृक्ष पर लगता है। और तुम्हारे नीतिशास्त्री तुम्हें कुछ उलटा समझा रहे हैं। वे समझा रहे हैं, छोड़ो स्वार्थ को। तुम तो जाओ मरीज के पैर दबाओ, अस्पताल में बैठो, सेवा करो, सर्वोदय में भर्ती हो जाओ; यह करो, वह करो। स्कूल चलाओ, अस्पताल खोलो, अनाथालय चलाओ, धर्मशालाएं बनाओ। वे तुम्हें जो भी सिखा रहे हैं, उससे ठीक है, धर्मशालाएं 189
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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