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ताओ उपनिषद भाग ६
राजेंद्र प्रसाद जब पहली दफा राष्ट्रपति हुए तो भवन तो वाइसराय का था, और साधु पुरुष कैसे उस भवन में रहें? साधु पुरुष हमेशा समझौता निकाल लेते हैं। और गांधी का तो आधार ही समन्वय और समझौता था। तो उन्होंने क्या किया? वाइसराय के भवन में जिस कमरे में वे बैठते थे उसकी सुंदर बहुमूल्य दीवारों पर उन्होंने चटाई जड़वा दी। निश्चित बैठ गए फिर, कोई डर न रहा। चटाई ने सुरक्षा कर ली। अब यह कोई वाइसराय का भवन थोड़े ही रहा, गांधी की कुटिया हो गई। आदमी के धोखे देने का अंत नहीं है! और इस कारण लोग प्रशंसा करेंगे कि कैसा साधु पुरुष कि वाइसराय के भवन में चटाई लगा कर बैठ गया।
भई चटाई ही लगानी थी तो वाइसराय के भवन में बैठने की कोई जरूरत नहीं, चटाई की कुटी में बैठ जाते। रहना तो वाइसराय के भवन में है, लेकिन चटाई लगा कर। तो ऐसे साधुता भी चल जाती है, असाधुता भी बच जाती है। इसको समझौता, ऐसे एक बीच का रास्ता निकाल लिया। दुकानदार की तरकीब, चालाकी। लेकिन फिर भी ठीक है। भय के कारण ही हो रहा है यह कि कहीं स्वर्ग न खो जाए। चटाई लगा कर स्वर्ग बचाया जा रहा है।
लाओत्से कहता है, अगर अंधेरे में ही जीने की कसम खा ली हो तो भयभीत होना ही बेहतर, भीरु होना बेहतर। क्योंकि अगर तुम निर्भय हए तो तुम खतरनाक हो जाओगे।
आस्तिक भय में जीते हैं; नास्तिक निर्भय हो जाता है। दोनों अंधेरे में हैं। न आस्तिक को पता है ईश्वर के होने का, न नास्तिक को पता है ईश्वर के न होने का। दोनों को कुछ पता नहीं है। दोनों अंधेरे में हैं। लेकिन आस्तिक भय में जीता है; नास्तिक निर्भय हो जाता है। इसलिए नास्तिक खतरनाक सिद्ध होता है।
अब तक मनुष्य-जाति के इतिहास में नास्तिकों के हाथ में सत्ता न आई थी। इधर इस सदी में रूस और चीन में नास्तिकों के हाथ में सत्ता आ गई। वे बड़े खतरनाक सिद्ध हो रहे हैं। आस्तिकों ने बहुत जघन्य अपराध किए हैं, लेकिन नास्तिक उनको मात कर रहे हैं। क्योंकि नास्तिक बिलकुल निर्भय है। उसे फिक्र ही नहीं। वह कहता है, कुछ मरता ही नहीं; आदमी काट दो, बात खतम। आदमी तो यंत्र है, मिट्टी की देह है; गिर गई, गिर गई। कोई अड़चन नहीं। माओ ने हजारों लोग काट डाले चीन में रत्ती भर भी बिना बेचैन हुए। तो ऐसी निर्भयता तो खतरनाक है।
लाओत्से कहता है, अगर बदलना हो तो भय से निर्भय में मत बदलना, भय से अभय में बदलना।
अभय बात ही अलग है। अभय का मतलब बहादुरी नहीं है। क्योंकि बहादुरी तो सिर्फ भयभीत आदमी में होती है। बहादुरी तो भयभीत आदमी को अपने को छिपाने का ढंग है। भयभीत आदमी अपने को भयभीत नहीं मानना चाहता तो बहादुरी पकड़ लेता है। अभय आदमी में न तो भय होता है और न निर्भयता होती है। अभय आदमी का भय के जगत से संबंध ही छूट जाता है। तो वह निर्भय भी कैसे हो सकता है?
इसलिए शब्दकोश में मत देखना इन शब्दों के अर्थ, क्योंकि वहां तो अभय का अर्थ भी निर्भय लिखा है। जीवन के शब्दकोश में अभय का निर्भय से कोई संबंध नहीं है और न भय से कोई संबंध है। अभय तो बात ही तीसरी है। अभय का तो प्रकाश से संबंध है; भय और निर्भय का अंधकार से संबंध है।
लाओत्से कहता है, जब लोगों को बल का भय नहीं रहता, जब वे निर्भय हो जाते हैं, तब अनिवार्य हो जाता है कि उनको महान रूप से दंडित किया जाए, महाबल उनके ऊपर उतरे।
___ कोई उतारता नहीं; यह जीवन का सहज नियम है। जैसे मैंने कहा कि तुम अगर अकड़ कर चढ़े वृक्ष पर तो गिरोगे। वृक्ष पर तो सम्हल कर चलना जरूरी है, सम्हल कर चढ़ना जरूरी है। अकड़ में गिरोगे तो हड्डी-पसली टूट जाएगी। ऐसा नहीं कि कोई तुम्हारी हड्डी-पसली तोड़ रहा है, या पृथ्वी की कोई आकांक्षा थी कि तुम्हारी हड्डी-पसली टूट जाए। या वृक्ष का कोई इरादा था कि तुमको गिरा दे। नहीं, तुम्हारी अकड़ से ही तुम गिर गए। वृक्ष को पता भी नहीं है। पृथ्वी शांत अपने मौन में लीन है। कहीं कोई खबर भी नहीं हुई है। तुम अपने ही हाथ से उलझ गए।
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