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ताओ उपनिषद भाग ६
तुम्हीं थे वे लोग। कुछ बदलता नहीं, नाटक की मंच बदल जाती है। वही हैं अभिनेता, वही हैं दर्शक: कथा वही है। जैसे रामलीला चलती है, हर गांव में चलती है; कथा वही है, मंच अलग है, राम भी अलग रूप के हैं, सीता भी अलग रूप की है; कथा वही है। सार वही है। जो लाओत्से के साथ तुमने किया वही तुम मेरे साथ करोगे। जो लाओत्से तुम्हारे साथ करना चाहता था वही मैं तुम्हारे साथ करना चाहता हूं। कथा वही है। हर गुरु-शिष्य के बीच कथा वही है। उसमें कुछ बहुत भेद नहीं है। रूप का भेद है, रंग का भेद है, नाम का भेद है। भीतर की धारा एक है।
___ तुम्हें मेरी बातें मूढ़ता जैसी ही लगेंगी। तुम अगर मेरे प्रेम में पड़ गए तो शायद तुम कहो न, लेकिन भीतर कहीं तुम्हारा तर्क कसमसाता रहेगा, और कहता रहेगा, इन बातों में कहां पड़े हो? मन इन बातों को समझ नहीं सकता।
लाओत्से कहता है, क्योंकि यह महान है-यह उपदेश–इसलिए यह मूढ़ता से मिलता-जुलता है।' . ___ यह थोड़ा समझ लेने जैसा है। क्योंकि ज्ञानी करीब-करीब एक अर्थ में मूढ़ जैसा हो जाता है। वर्तुल पूरा हो जाता है। तुमने कभी किसी मूढ़ व्यक्ति को देखा है ? मूों की बात नहीं कर रहा हूं। मूढ़! मूढ़ का मतलब होता है ईडियट, जो सोच ही नहीं सकता। ज्ञानी का भी सोचना खो जाता है। फर्क बड़ा है; तालमेल भी बड़ा है। अगर तुम इतना ही देखो तो जिसको हम मूढ़ कहते हैं उसमें भी विचार की तरंगें नहीं होतीं। वह बैठा रहता है सुस्त-पत्थर की तरह। उसके भीतर कोई ऊहापोह नहीं होता। ज्ञानी भी बैठा रहता है, लेकिन पत्थर की तरह नहीं। बड़ा गतिमान, बड़ा प्रवाहमान; सतत धारा बहती है चैतन्य की; लेकिन विचार नहीं होता।
तो अगर तुम विचार से ही नापने चलो तो तुम्हें ज्ञानी और मूढ़ समान मालूम पड़ेंगे। अगर तुम चैतन्य से नापने चलो तो वे दो विपरीत छोर हैं। मूढ़ के पास कोई चैतन्य नहीं है, ज्ञानी के पास परम चैतन्य है। मूढ़ विचार से नीचे है, ज्ञानी विचार के ऊपर है, लेकिन दोनों के विचार...। मध्य में तुम हो जहां विचारों का झंझावात है। तुमसे नीचे है मूढ़, वहां कोई झंझावात नहीं है।
इसलिए मूढ़ भी कभी-कभी बड़ा प्रसन्न दिखता है। मूढ़ तुमसे ज्यादा आनंदित दिखता है। क्योंकि न कोई चिंता है, न कोई विचार है। मूढ़ जानवर जैसा है। वह तुमसे ज्यादा सुखी है, इसमें कोई शक नहीं। क्योंकि दुखी होने . के लिए काफी चिंतन की जरूरत है। दुखी होने के लिए काफी विचार करना जरूरी है। जितना विचारशील आदमी हो, उतना दुख का जाल खड़ा कर लेता है।
संतों ने कहा है, सब ते भले मूढ़, जिन्हें न व्यापै जगत गति।
जगत चलता रहता है, मगर मूढ़ में व्यापती ही नहीं कुछ बात। उसे कुछ मतलब ही नहीं है; खा लिया, पी लिया, सो गए। ज्ञानी भी ऐसा ही है; खा लिया, पी लिया, सो गए। लेकिन मूढ़ है अंधकार से भरा और ज्ञानी है प्रकाश से भरा। मूढ़ में विचार नहीं उठते, क्योंकि प्रकाश की जरा सी भी झलक वहां नहीं है। ज्ञानी में विचार नहीं उठते, क्योंकि प्रकाश परिपूर्ण हो गया, अंधकार का जरा सा भी कोना नहीं रह गया। मूढ़ अंधकार की दृष्टि से पूर्ण है, ज्ञानी प्रकाश की दृष्टि से पूर्ण है, तुम मध्य में हो। इसलिए तुम्हारी बड़ी दुर्गति है।
मध्य में सदा दुर्गति रहेगी, क्योंकि खिंचाव रहेगा, तनाव रहेगा। एक तरफ मूढ़ता खींचती है कि चले आओ इसी किनारे, क्यों परेशान हो रहे हो? तो कभी-कभी तुम शराब पीकर मूढ़ हो जाते हो। इसलिए तो दुनिया में नशों का इतना प्रभाव है। वे मूढ़ होने के ढंग हैं। मूढ़ता खींचती है, लौट आओ पुराने किनारे पर! इस मध्य में खड़े-खड़े तुम बहुत परेशान, अशांत, बेचैन हो रहे हो।
लेकिन कोई पीछे लौट नहीं सकता। जीवन में पीछे जाने का उपाय नहीं है। इसलिए तुम घड़ी, दो घड़ी के लिए लौट जाओ, फिर वापस लौट आना पड़ेगा। उपाय तो आगे जाने का है। ज्ञानी बुलाते हैं आगे, कि बढ़ आओ! ज्ञानी भी कहते हैं, मत रुको सेतु पर।
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