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मुर्छा रोग हैं और जागरण स्वास्थ्य
लेकिन अगर तुम पहचान लो अपनी इस रुग्ण दशा को, तो तुम स्वस्थ होने शुरू हो गए। जिस आदमी को समझ में आ जाए कि मैं जानता तो नहीं हूं, लेकिन दावा करता हूं, उसका सुधार शुरू ही हो गया। वह यात्रा पर चल पड़ा। उसकी बदलाहट निकट है। उसका इलाज प्रारंभ हो गया। उसके जीवन में औषधि आ गई। ऐसा ही जैसे रात सपने में अगर तुम्हें पता चल जाए कि यह सपना है, तो नींद टूट जाती है। जब तक पता चलता है, यह सपना नहीं है, सत्य है, तभी तक नींद रहती है। पता चलना शुरू हुआ कि यह सपना है कि सपना गया। तुम आधे जागे हो ही गए।
ठीक ऐसे ही अगर मन के रोग तुम्हें पहचान में आ जाएं। और यह बड़ा से बड़ा रोग है। मनुष्यता ज्ञान से बिलकुल विक्षिप्त हो गई है। तुम्हें समझ में आ जाए कि यह रोग है, जानता तो मैं कुछ भी नहीं हूं। तत्क्षण तुम सरल होने लगोगे, तुम्हारी ग्रंथियां खुल जाएंगी।
'संत मन से रुग्ण नहीं हैं।'
और लाओत्से कहता है, वही संत है जो साफ-साफ जानता है कि मैं कुछ भी नहीं जानता। जितना तुम जागोगे उतना ही तुम्हें पता चलेगा कि तुम क्या जानते हो। एक ऐसी घड़ी आती है कि सब ज्ञान खो जाता है; तुम परम अज्ञान में खड़े रह जाते हो। उस परम अज्ञान के मौन का कोई मुकाबला नहीं है। उस परम अज्ञान की शांति का कोई मुकाबला नहीं है। उस परम अज्ञान में बड़ा प्रकाश है। और तुम्हारे ज्ञान में महा अंधकार था। उस परम ज्ञान-या परम अज्ञान के क्षण में अचानक तुम खो गए, मिट गए, पिघल गए, और तुम्हारी जगह कुछ और अवतरित होने लगा। वही सत्य है। वही ब्रह्म है।
'संत मन से रुग्ण नहीं हैं। क्योंकि वे रुग्ण मानसिकता को रुग्ण मानसिकता की तरह पहचानते हैं, इसलिए मन से रुग्ण नहीं हैं।'
बड़ी अनूठी क्रांति घटित होती है अगर तुम अपनी स्थिति को ठीक-ठीक पहचान लो। स्थिति को ठीक-ठीक पहचान लेना, क्रांति शुरू हो गई। अगर कोई पागल आदमी मान ले और जान ले कि पागल है, वह आदमी ठीक होना शुरू हो गया। पागल कभी नहीं मानते। पागलखाने में जाकर तुम देखो, कोई पागल मानने को राजी नहीं हो सकता कि वह पागल है। सारी दुनिया को पागल समझता है, खुद को पागल नहीं समझता।
जो लोग पागलों की चिकित्सा करते हैं, वे कहते हैं कि जब कोई पागल यह समझने लगता है कि वह पागल है, तब हम जानते हैं कि अब वह ठीक होने के करीब आ गया। क्योंकि इतना होश आ जाना कि मैं पागल हूं, काफी ठीक हो जाना है। कौन जानेगा कि मैं पागल हूं! जो जान रहा है वह पागलपन से अलग हो गया, भिन्न हो गया। मन दूर रह गया; चेतना ऊपर उठ गई। तभी तो चेतना जान सकती है कि मैं पागल हूं।
अब यह तो बड़ी अदभुत बात हो गई। यह तो ऐसा उलटा हो गया हिसाब कि जो समझते हैं कि हम पागल नहीं हैं वे पागल हैं। और जो समझते हैं कि हम पागल हैं वे पागल नहीं हैं।
तुम्हें कभी खयाल आया कि तुम पागल हो? कभी तुम शांत होकर भीतर मन को देखे कि कितना पागलपन चल रहा है? कभी एक कोरे कागज को लेकर बैठ जाओ और मन में जो भी चलता हो लिख डालो। जैसा चलता हो वैसा ही लिख डालो; जरा भी बदलो मत। तुम बड़े हैरान होगे, तुम पाओगे कि यह तो बिलकुल पागलपन है।
लेकिन तुम पीठ किए खड़े हो अपने ही मन की तरफ, और तुम्हारा पागलपन बढ़ता जाता है। हर आदमी पागल होने के करीब है। मनसविद कहते हैं कि सौ में से पचहत्तर आदमी बिलकुल पागलपन के करीब ही खड़े हैं। जरा सा धक्का-दिवाला निकल जाए, पत्नी मर जाए, बच्चा मर जाए, कोई एक्सीडेंट हो जाए, आग लग जाए मकान में-जरा सा धक्का, और वे पागल हो जाएंगे। वे निन्यानबे डिग्री पर हैं। एक डिग्री और, सौ डिग्री पर वे पागल हो जाएंगे।
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