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________________ मूर्छा रोग है और जागरण स्वास्थ्य पहली बात खयाल में ले लें: अंश अंशी को नहीं जान सकता है, खंड अखंड को नहीं पहचान सकता है। इसका कोई उपाय ही नहीं है। उपाय है तो यह कि खंड खुद भी अखंड हो जाए। ईश्वर को जाना नहीं जा सकता, लेकिन ईश्वर हुआ जा सकता है। जानने में तो फासला है, दूरी है; होने में कोई फासला नहीं है, कोई दूरी नहीं है। तुम ईश्वर होकर ही ईश्वर को जान पाओगे। तुम तुम रहते ईश्वर को न जान सकोगे। . इसलिए तो ज्ञानियों ने अहं ब्रह्मास्मि की घोषणा की है। उस घोषणा में तुम अहं शब्द पर जोर मत देना। उस घोषणा में ब्रह्मास्मि पर जोर है। मैं ब्रह्म हूं, इसका अर्थ ही होता है कि मैं नहीं हूं और ब्रह्म है। अगर तुम इसका ऐसा अर्थ करो कि मैं ब्रह्म हूं तो तुम भूल में पड़ जाओगे। मैं ब्रह्म हूं, इसका अर्थ ही होता है कि अब मैं नहीं हूं, ब्रह्म ही है; इसलिए मैं ब्रह्म हूं। यह मैं के मिटने पर घटती है घटना। यह कोई मैं की उदघोषणा नहीं है। ईश्वर हुआ जा सकता है; ईश्वर को जाना नहीं जा सकता। तुम अस्तित्व में डूब सकते हो, खो जा सकते हो; तुम अस्तित्व के साथ एक हो जा सकते हो, एकरस। उस एकरसता में ही ज्ञान है। लेकिन तब तुम जानने वाले न रहोगे, और न कोई होगा जिसे तुमने जाना। एक ही बचेगा, जो स्वयं को ही जानता है। तुम जा चुके होओगे। इसलिए लाओत्से बहुत जोर देता है : अज्ञान से तो छुटना ही है, ज्ञान से भी छूटना है। अज्ञान से छूटे, यह काफी नहीं है। जरूरी है, पर्याप्त नहीं है। अभी ज्ञान से भी छूटना है। बीमारी से तो छूटना ही है, औषधि से भी छूटना है। कुछ बीमार होते हैं कि बीमारी से तो छूट जाते हैं, फिर औषधि से उलझ जाते हैं, फिर औषधि नहीं छूटती। क्योंकि डर लगता है, अगर औषधि छोड़ी तो कहीं बीमारी न लौट आए। तब फिर औषधि भी बीमारी हो गई। बीमारी से भी छुटना है और सजगता रखनी है कि औषधि से जकड़ न हो जाए। कांटा पैर में लग जाए उसे तो निकालना ही है, लेकिन जिस कांटे से उसे निकालना है उसे घाव में नहीं रख लेना है। दोनों कांटों को एक साथ ही फेंक देना है। कांटे तो कांटे ही हैं। गड़ा हुआ कांटा भी कांटा है, और जिस कांटे से तुमने उसे निकाला वह भी कांटा है। दोनों को साथ ही फेंक देना है। अज्ञान तो मिटाना ही है; ज्ञान भी मिटाना है। ज्ञान से अज्ञान निकल जाए, तब तुम ज्ञान से अगर जकड़ जाओ, तो तुमने बंधन बदल लिए, बंधन मिटे नहीं। पहले तुम्हारे पास जंजीरें थीं लोहे की थीं, अब तुम्हारे पास जंजीरें सोने की हैं, या हो सकता है प्लैटिनम की हों। जंजीरें बदल गईं; सुंदर जंजीरें आ गईं; बड़ी प्यारी जंजीरें आ गईं, कीमती और बहुमूल्य। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? तुम्हारा कारागृह कायम रहा। __और लोहे की जंजीरों को तो तोड़ने का मन भी होता है, सोने की जंजीरों को तोड़ने का मन भी न होगा। कारागृह और भी गहन हो गया, मजबूत हो गया। अब तो जंजीरें आभूषण जैसी मालूम पड़ेंगी। अब तुम इसे कारागृह मानोगे ही न; तुमने बहुत सजा लिया। अज्ञानी अंधकार में रहता है, बे-सजे अंधकार में; उसका घर खंडहर जैसा है। और जिनको तुम ज्ञानी कहते हो, उन्होंने घर को ठीक सजा लिया। उनका घर महलों जैसा है जो बड़ा बहुमूल्य है। लेकिन वह घर वही है जिसमें अज्ञानी रहता था। क्योंकि अहंकार में कोई अंतर नहीं पड़ा है, घर बदला नहीं गया है। अज्ञान से तो छूटना ही है, ज्ञान से भी छूटना है। और तब एक अनूठे अज्ञान का जन्म होता है, जहां न ज्ञान है, न जहां अज्ञान; जहां जानने का दावा ही खो गया होता है। तो न जहां कोई न जानने वाला होता है, न जानने वाला होता है; जहां एक विराट शून्य छा जाता है; जहां भीतर कोई विचार की तरंग नहीं उठती; जहां परम मौन हो जाता है; उस मौन के क्षण में ही कोई प्रवेश करता है परमात्मा के मंदिर में। अस्तित्व तभी खोलता है द्वार जब तुम मिट जाते हो। __ जलालुद्दीन रूमी की बड़ी प्यारी कविता है कि प्रेमी ने प्रेयसी के द्वार पर दस्तक दी। भीतर से पूछा गयाः कौन है? प्रेमी ने कहा, मैं तेरा प्रेमी। और भीतर सन्नाटा हो गया, उदास सन्नाटा। उसने बार-बार दरवाजा खटखटाया, 167
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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