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________________ ताओ उपनिषद भाग ६ पूर्ण ही पूर्ण को जान सकेगा। जब तुम मिट जाओगे तब तुम पूर्ण हो जाते हो। जब लहर मिट जाती है तो सागर हो जाती है। उस घड़ी में जानना हो सकता है। अब यह बड़ी उलझन की बात है। जब तक तुम चाहो कि जानना हो जाए तब तक हो न सकेगा; क्योंकि तुम मौजूद रहोगे। जब तुम राजी हो जाओगे अज्ञान के लिए भी, तभी तुम मिट जाओगे। ज्ञान अहंकार का सबसे बड़ा सहारा है। इसलिए धन छोड़ दो, कुछ भी न होगा। धन छोड़ कर यह मत सोचना कि अहंकार छूट गया। त्यागियों का अहंकार तो और भी गहन हो जाता है। क्योंकि त्यागियों को खयाल होता है, उनके पास त्याग है। तुम्हारे पास तो धन है, ठीकरे हैं, जो आज नहीं कल मौत छीन लेगी। त्यागी को खयाल होता है, उसने ऐसे सिक्के कमा लिए जो मौत के बाद भी उसके साथ जाएंगे। तुम्हारा बैंक बैलेंस यहीं है; उसका बैंक बैलेंस परलोक में है। उसने खाते आगे खोल दिए। और तुम्हारा धन तो चोरी जा सकता है; त्याग की कैसे चोरी करिएगा? तुम्हारे धन का तो दिवाला निकल सकता है; त्यागी का दिवाला कभी नहीं निकलता। उसका धन ज्यादा सूक्ष्म है। न छीना जा सकता, न चुराया जा सकता; न बाजार में कोई परिवर्तन हो जाए, इससे उसके त्याग के मूल्य में कोई परिवर्तन होता है। उसका अर्थशास्त्र ज्यादा गहरा है। तुम्हारे अर्थशास्त्र की नींव रेत पर रखी होगी; उसके अर्थशास्त्र की नींव चट्टानों पर रखी है। इसलिए त्यागी तो धनी से भी ज्यादा अहंकारी हो जाता है। परिवार छोड़ सकते हो, धन छोड़ सकते हो, पद-प्रतिष्ठा छोड़ सकते हो; कुछ भी न होगा, जब तक ज्ञान न छोड़ो। क्योंकि ज्ञान गहरी से गहरी संपदा है। और ज्ञान की अकड़ गहरी से गहरी है। इसलिए तुम अक्सर देखोगे कि पंडित चाहे फकीर हो, कपड़े-लत्ते फटे-पुराने हों, लेकिन उसकी अकड़ और है। ब्राह्मण की अकड़ पांडित्य की अकड़ से पैदा हुई है। क्षत्रियों की तलवार में भी वह धार नहीं है जो ब्राह्मण के चेहरे पर होती है। बड़े से बड़े धनी के भी भीतर वैसा अहंकार नहीं है जो ब्राह्मण जब चलता है तो उसकी चाल में होता है। उसके पास कुछ भी नहीं है, लेकिन ज्ञान की संपदा है। इसलिए मैं देखता हूं कि कभी यह तो हो भी जाए कि पापी पहुंच जाए परमात्मा के पास, लेकिन पंडित कभी नहीं पहुंचता है। पंडित के पहुंचने का उपाय ही नहीं है। क्योंकि उसकी दीवाल बड़ी सूक्ष्म है, बड़ी मजबूत है। और उसके अहंकार की बड़ी गहनता में छिपी है, जिसको पहचानने के लिए बड़ी प्रगाढ़ और तीव्र आंखें चाहिए। जिसने ज्ञान को छोड़ दिया उसके पास कुछ भी नहीं बचता; वह भीतर खाली हो जाता है। तिजोरी में रखा हुआ धन तो तिजोरी में रखा है; ज्ञान का धन भीतर भरा है। और जब तक तुम ज्ञान से भरे हो तब तक तुम अज्ञानी ही रहोगे। क्योंकि परमात्मा तुम्हारे भीतर न उतर सकेगा। लहर मिटेगी न तो सागर उतरेगा कैसे? बूंद खोने को राजी न होगी तो विराट कैसे होगी? तब तुमने क्षुद्र को ही सब कुछ मान लिया। और तुम क्षुद्र में ही कैद हो जाओगे। अज्ञान को अनुभव कर लेना ज्ञान का पहला चरण है। अज्ञान को भर लेना ज्ञान से, और महा अज्ञान में गिर जाना है। उपनिषदों में बड़ा प्यारा वचन है। ऐसा वचन दुनिया के किसी भी शास्त्र में नहीं। उपनिषद कहते हैं, अज्ञानी तो भटकते ही हैं अंधकार में, ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं। अज्ञानी का भटकना तो समझ में आ जाता है। हम सभी जानते हैं कि अज्ञानी भटकता है। जो जानता ही नहीं वह भटकेगा ही। लेकिन उपनिषद कहते हैं, जिसको भ्रांति है कि जानता हूं, वह महा अंधकार में भटक जाता है। तो अज्ञानी तो छोटे-मोटे अंधकार में होते हैं, पुकार लिए जा सकते हैं; प्रकाश से बहुत दूर नहीं हैं; पास ही उनका डेरा है। ज्ञानी बड़ी दूर की यात्रा पर निकल जाता है। सूरज की तरफ पीठ कर लेता है ज्ञानी। ज्ञानी यानी पंडित; ज्ञानी यानी प्रज्ञावान नहीं, कोई बुद्ध नहीं, कोई कृष्ण नहीं, पंडित! जिसने शब्दों को सीख लिया है। जिसने शास्त्रों को कंठस्थ कर लिया है; जिसने उधार विचारों से अपने को भर लिया है; और अब इस उधार और जूठन पर जिसकी सारी अकड़ है। 166
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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