________________
स्तित्व का ज्ञान असंभव है। उसे जानने का कोई उपाय नहीं है। उपाय नहीं है, क्योंकि अस्तित्व मनुष्य के पूर्व है; मनुष्य के पश्चात भी है। मनुष्य तो एक छोटी सी तरंग है उठी सागर में। तरंग कैसे सागर को जान सकेगी? तरंग न थी तब भी सागर था, तरंग न हो जाएगी तब भी सागर होगा। क्षण भर को तरंग है। सागर शाश्वत है। तरंग की सीमा है,
ओर-छोर है। सागर का कोई ओर-छोर नहीं, कोई सीमा नहीं। छोटी सी तरंग कैसे समा पाएगी पूरे सागर को अपने ज्ञान में? इठला सकती है; थोड़ी देर बेहोशी में यह भान भी बना सकती है कि जान लिया। लेकिन वह भ्रांति ही सिद्ध होगी। माना कि पक्षी आकाश में उड़ सकते हैं। लेकिन कितने दूर? आकाश का
कोई ओर-छोर है? पक्षियों के पंख आकाश की विराटता को कैसे नाप पाएंगे? जहां तक पक्षी उड़ लेंगे, समझेंगे वहीं आकाश का अंत आ गया। पंखों की सामर्थ्य जहां चुक जाती है वहां आकाश का अंत नहीं है, सिर्फ पंखों की सामर्थ्य चुक गई है। पक्षी भी इठला सकते हैं कि जान लिया, माप लिया, यात्रा कर आए। लेकिन क्या है उस यात्रा का मूल्य ? और विराट की तुलना में क्या उसका अर्थ है?
मनुष्य भी विचार के पंख से थोड़ा सा जानने की कोशिश करता है; उड़ता है थोड़ा, तड़फड़ाता है। उस • तड़फड़ाहट को तुम आकाश का माप लेना मत समझ लेना। उस तड़फड़ाहट की थोड़ी-बहुत उपयोगिता हो सकती है, लेकिन अंतिम अर्थों में कोई सार्थकता नहीं है। अंश पूर्ण को कभी भी जान नहीं सकता। यह तो ऐसे ही होगा कि जैसे मेरे हाथ मेरे पूरे शरीर को जानने का दावा करें। हाथ कैसे पूरे शरीर को जान सकेंगे? हाथ उतना ही जान सकते हैं जितने में वे हैं। शरीर उनसे बड़ा है। हम इस विराट की तुलना में अणु-मात्र भी तो नहीं हैं। यह अणु कैसे परम को जान सकेगा?
इसलिए जानने के दावे सिर्फ अज्ञानी करते हैं। ज्ञानी तो एक बात जान पाता है कि ज्ञान संभव नहीं है। ऐसा जानते ही सारी अकड़ खो जाती है। ऐसा जानते ही सारा अहंकार गिर जाता है। और उस निरहंकार अवस्था में कुछ घटता है, जिसे ज्ञान तो नहीं कह सकते, लेकिन जिसे अज्ञान कहना भी गलत होगा। मेस्टर इकहार्ट ने, जर्मनी के एक बहुत बड़े ईसाई फकीर ने, इस घड़ी के संबंध में एक वचन कहा है जो बड़ा स्मरणीय है। उसने कहा है, जब मैंने जान लिया कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं, तत्क्षण एक पर्दा उठ गया; परमात्मा सामने खड़ा था। लेकिन तब मैं मौजूद न था। और इकहार्ट ने कहा, अगर क्षमा करें मुझे और भाषा की भूल-चूक न निकालें तो मैं कहना चाहूंगा, परमात्मा ने मेरे द्वारा स्वयं को जाना उस क्षण में। जैसे परमात्मा की ऊर्जा बही मुझसे और लौट गई अपने को स्रोत में। परमात्मा ने ही परमात्मा को जाना, मेरे माध्यम से। तब वे आंखें मेरी न थीं; तब उन आंखों में परमात्मा ही देख रहा था। परमात्मा ही देखने वाला था और परमात्मा ही देखा जाने वाला था। मैं तो खो गया था।
165