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________________ संत को पहचानना महा कठिन है भी कहता है, मुझसे बड़ा कोई असाधु नहीं। तुम्हारे साधु भी प्रदर्शनवादी हैं। वे कहते हैं, हमने इतने उपवास किए, इतनी तपश्चर्या की, इतने हजार दफे माला फेरी, लाख राम के नाम लिख डाले। वे भी हिसाब रखे हुए हैं। उनसे बड़ा कोई साधु नहीं है। संत का कोई दावा नहीं है। क्योंकि न तो वह साधु है कि दावा कर सके और न असाधु है कि दावा कर सके। उसमें रात और दिन मिल गए हैं। रात भी प्रकट दिखाई पड़ती है-गहन अंधकार! भरी दोपहरी भी साफ है-सूरज जलता है! साधु तो संध्या जैसा है, जहां दिन और रात मिलते हैं; सब धुंधला-धुंधला है। वास्तविक संत संध्या जैसा है, जहां सब धुंधला है, जहां कुछ साफ नहीं है। रहस्यपूर्ण है; न रात है, न दिन है; दोनों मिल गए हैं। न जीवन है, न मृत्यु है; दोनों मिल गए हैं। न शुभ है, न अशुभ है; दोनों मिल गए हैं। संत का जीवन तो संध्या का जीवन है, जहां सब मिल गया है। जान सकेंगे वे ही जो मधुर के संगीत को सुन सकते हैं। जिनको दोपहरी की आदत है उनको संध्या न जंचेगी। उसमें त्वरा नहीं है, तेजी नहीं है; सब धीमा-धीमा, फीका-फीका है। जिनको गहन अंधेरी रात की आदत है, उनको भी संध्या जंचेगी नहीं। अंधकार की तीव्रता, अंधकार का घनापन वहां नहीं है, सब विरल है। रात भी साफ है; दिन भी साफ है। संध्या धुंधली है। संत धुंधला है। उसे वे ही पहचान सकते हैं जिनको धुंधले में देखने की आंखें हों जिनके पास, जो रहस्य में झांक सकते हों। जहां सीमाएं खो जाती हैं, वहां जिनको देखने की क्षमता हो। जहां परिभाषाएं मिट जाती हैं, जहां द्वंद्व लीन हो जाता है, वहां जिनके पास पहचान हो, वहां गति करने की जिनके पास क्षमता हो, वे थोड़े से लोग ही पहचान सकेंगे। और तब संत के भीतर बड़े मणि-माणिक्य हैं। काश तुम संध्या में झांक सको! तो संध्या में सारा दिन भी छिपा है और सारी रात भी। काश तुम अपरिभाष्य में झांक सको! तो सब सत्य भी वहीं छिपे हैं, सब असत्य भी। काश तुम एक संत में झांक सको! तो तुम्हें जीवन के सभी राज वहां मिलते हुए मिलेंगे। शुभ और अशुभ वहां आलिंगन किए खड़े हैं। वहां प्रथम और अंत एक साथ मौजूद हैं। 'संत बाहर से तो मोटा कपड़ा पहनते हैं, लेकिन भीतर हृदय में मणि-माणिक्य लिए रहते हैं।' बाहर उनका कोई भी दावा नहीं है। इसलिए अगर तुम्हें दावेदारों को ही पहचानने की आदत है तो तुम संत को कैसे पहचान पाओगे? उसका कोई भी दावा नहीं है। संत बिना दावे के जीता है—बिना शर्त, बिना दावे के। संत सिर्फ जीता है। अगर तुम्हें जीवन की सुगंध पहचानने की कला आ गई तो तुम पहचान सकोगे। और तब संत से एक द्वार खुलता है, जो द्वार तुम्हें ठीक परमात्मा के मंदिर में पहुंचा दे। - लेकिन संत को पहचानना मुश्किल है। संत बिलकुल सरल है, इसीलिए पहचानना मुश्किल है। संत जीवन जैसा सरल है, इसीलिए पहचानना मुश्किल है। संत को साधना भी मुश्किल है। साधु को साध सकते हो; असाधु को साध सकते हो। साधु हम कहते ही हैं उसको क्योंकि उसने बहुत साध लिया। असाधु भी इसीलिए कहते हैं कि उसने विपरीत साध लिया। संत को तुम न साध सकोगे, न समझ सकोगे। संत को तो तुम सिर्फ अगर मौका दे दो तुम्हारे भीतर प्रविष्ट होने का, संत के पास तो तुम अगर बैठ जाओ दो घड़ी, विश्राम कर लो, साधना की बात छोड़ दो, विधि-विधान छोड़ दो, संत के संग-साथ हो लो थोड़ी देर, दो कदम चल लो, दो कदम बैठ लो, तो संत संक्रामक है, तो उसका हृदय तुममें डोल जाएगा, उसकी धड़कन तुम्हारी धड़कन का भाग बन जाएगी। और तभी पहचान संभव है। तुम अगर संत को थोड़ी देर जी लो। इसलिए एकमात्र रास्ता है लाओत्से, रमण जैसे व्यक्तियों को जानने काः उनके पास होने की कला। वही शिष्यत्व है। सीखने को वहां कुछ है नहीं। तुम मछली हो; तैरना तुम जानते हो। एक छोटी सी कहानी; विवेकानंद को बहुत प्रिय थी यह कहानी। 161
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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