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ताओ उपनिषद भाग ६
में और गांधी में एक तारतम्य है; भेद नहीं है। गांधी बिलकुल समझ में आते हैं; रमण बिलकुल समझ में नहीं आते। क्योंकि वे उस रास्ते पर ही नहीं मालूम पड़ते जिस पर तुम हो। वे चलते ही नहीं मालूम पड़ते, रास्ते की तो बात दूर। वे बैठे मालूम पड़ते हैं।
लाओत्से और तुममें बड़ा फर्क है। भाषा ही नहीं मिलती; दोनों के बीच कोई कम्युनिकेशन का, संवाद का साधन नहीं जुड़ता। दोनों जैसे बिलकुल अपरिचित, अजनबी हैं; दो अलग-अलग लोकों के वासी हैं। कैसे तुम जान पाओगे? कैसे तुम पहचानोगे? तुम लाओत्से के पास से गुजर जाओगे, लेकिन तुम्हें महात्मा दिखाई न पड़ेगा। क्योंकि तुम्हारे महात्मा सतह पर हैं। तुम्हारे महात्मा तुम्हारी भाषा में आते हैं। तुम्हारे साग-सब्जी तौलने के बटखरों से तुम्हारे महात्मा भी तुल जाते हैं। तुम्हारे फुट-इंचों से तुम्हारे महात्मा भी नप जाते हैं। फुट-इंच तुम्हारे हैं; नाप तुम्हारा है। और तुम्हारे महात्मा भी बहुत बड़े नहीं हो सकते जो तुम्हारे फुट-इंच से नप जाते हैं। लेकिन तुम कैसे नापोगे लाओत्से को? थाह नहीं है। फुट-इंचों का काम नहीं है। तुम कैसे नापोगे लाओत्से को? तुम्हारे बटखरे बड़े छोटे हैं। उनसे कोई तालमेल ही नहीं उठता; उनसे कोई संबंध ही नहीं जुड़ता।
और इसलिए तुम चूक जाओगे। लाओत्से के पास से गुजरोगे, लाओत्से दिखाई न पड़ेगा। और ऐसा नहीं है कि तुम न गुजरे होओ। इतने लंबे समय से तुम पृथ्वी पर हो। न मालूम कितनी बार लाओत्से जैसे व्यक्तियों के पास से गुजरने का मौका मिला होगा। लेकिन वे तुम्हें दिखाई नहीं पड़े; क्योंकि उनमें ऐसा कुछ भी न दिखाई पड़ा जिसे तुम तौल लेते। तुमने उन्हें अस्पताल में सेवा करते न पाया। तुमने उन्हें जाकर गरीब को भूदान करते न देखा। तुमने उन्हें समाज की सामान्य क्षुद्र व्यवस्थाओं में कोई क्रांति करते न देखा। उन्होंने दहेज-प्रथा के खिलाफ कोई आंदोलन न चलाया। और न हरिजनों का उद्धार करने की कोई चेष्टा की। इनको तुम पहचानोगे कैसे?
ये तो ऐसे थे जैसे वृक्ष हों। ये तो ऐसे थे जैसे पहाड़ी चट्टानें हों। ये तो ऐसे थे जैसे पहाड़ी झरने हों। ठीक है, थोड़ी देर तुम इनके पास बैठ लिए–एक जंगली सौंदर्य था इनके पास-फिर तुम अपनी राह पर हो लिए। ये तुम्हारे काम के न थे। तुम इनका उपयोग न कर सके, इसलिए तुम इनसे वंचित हो गए। और तुम इनका उपयोग कर भी नहीं सकते। विराट का उपयोग नहीं हो सकता। विराट आकाश का क्या उपयोग करोगे? छोटे-छोटे आंगन चाहिए तुम्हें। तुम्हारे महात्मा छोटे-छोटे आंगन हैं, फुलवारियां हैं।
इसलिए लाओत्से कहता है, चूंकि बहुत कम लोग मुझे जानते हैं, मैं विशिष्ट हूं। लोग पास से गुजर जाते हैं, और पहचानते नहीं; मैं विशिष्ट हूं।
विशिष्ट की यह परिभाषा बड़ी अनूठी है। 'इसलिए संत बाहर से तो मोटा कपड़ा पहनते हैं, लेकिन भीतर हृदय में मणि-माणिक्य लिए रहते हैं।'
संत के मणि-माणिक्य उसके कपड़ों पर नहीं जड़े हैं; साधु के मणि-माणिक्य उसके कपड़ों पर जड़े हैं। साधु को तुम ऊपर से ही पहचान लेते हो। वह नग्न खड़ा है। कैसे बचोगे पहचानने से? वह धूप में खड़ा है। कैसे बचोगे पहचानने से? वह भूखा खड़ा है; उपवास कर रहा है। कैसे बचोगे पहचानने से? वह शीर्षासन कर रहा है; कांटों पर लेटा है। तुम भागोगे कहां? तुम बचोगे कैसे? उसके सब मणि-माणिक्य ऊपर जड़े हैं।
साधु एक्झिबीशनिस्ट हैं, प्रदर्शनवादी हैं। असाधु और साधु में बहुत फर्क नहीं है। वे एक ही चीज के दो पहलू हैं। असाधु भी चर्चा करते हैं अपनी असाधुता की। अगर तुम चोरों-डाकुओं के पास जाओ तो वे सब दावा करते हैं कि कितनों को लूटा, कितनों को मारा। झूठे दावे! मारे होंगे दो तो बताते हैं बीस। कारागार में चले जाओ, पागलखाने में चले जाओ। पूछो। तो तुम पाओगे, वहां अपराधी बता रहे हैं, एक-दूसरे पर रोब गांठ रहे हैं। काटी होगी जेब, बताते हैं खजाना लूट लिया। असाधु भी प्रदर्शनवादी है। वह भी कोई छोटा असाधु नहीं होना चाहता। वह
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