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ताओ उपनिषद भाग ६
सोचो। तो शिव ने कहा, अब क्या करें? अब तो एक ही उपाय है। और वे लोग जो यह कह रहे थे कि कुछ तो सोचो, इससे तो अच्छा हो कि तुम दोनों नंदी को अपने सिर पर रख लो बजाय दो-दो उसके ऊपर चढ़ो। तो शिव ने कहा, चलो अब यही करें। तो उन्होंने नंदी को बांधा। बामुश्किल तो नंदी को बांध पाए। दोनों ने कंधे पर रखा। नंदी तड़फ रहा है। फिर वे एक नदी के पुल पर आए। वहां बड़ी भीड़ थी और लोग कहने लगे, हद हो गई मूर्खता की! बहुत मूर्ख देखे भई, ये महामूर्ख हैं। नंदी पर चढ़ने के लिए है कि उसको कंधे पर ढोने के लिए? अब बड़ी मुश्किल थी। अब कोई विकल्प ही न छूटा था। और तभी नंदी तड़फड़ाया जोर से और पुल से नीचे गिरा। शिव ने पार्वती को कहा कि देख ले, कुछ भी करो, लोग तो निंदा करेंगे ही।
क्योंकि यह सवाल नहीं है कि तुम कुछ करते हो, इसलिए वे निंदा करते हैं। वे निंदा करना चाहते हैं, इसलिए कोई भी बहाना खोज लेते हैं। निंदा करेंगे ही। क्योंकि निंदा में ही उनके अहंकार की तृप्ति है। तुम्हारा करना तो सिर्फ बहाना है उनके लिए। तुम कुछ भी करो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हर हालत में निंदा पाओगे।
लोगों की फिक्र छोड़ दो। समझदार उनकी फिक्र नहीं करता। वे क्या कहते हैं, वह उनकी वे जानें। वे कहते हैं, खुद सुनें। समझदार उनकी चिंता नहीं करता। समझदार तो अपने जीवन को ऐसे जीता है जैसे वह अकेला है, यहां कोई दूसरा है ही नहीं। तुम ऐसे ही जीयो कि तुम जैसे अकेले हो; तभी तुम्हारे जीवन में वह सूत्र आ जाएगा जिसको लाओत्से कहता है मेरा सिद्धांत। बेशर्त जीओ। कुछ खोने को नहीं है, और पाने को सब कुछ है, अगर बेशर्त जीए।
लाओत्से कहता है, 'मेरे शब्दों में एक सिद्धांत है, और मनुष्यों के कारबार में एक व्यवस्था है।'
क्या है व्यवस्था मनुष्य के कारबार में जो मनुष्य को दिखाई नहीं पड़ती? वह व्यवस्था यह है कि जीवन का सारा कारबार विरोधियों के मिलन से निर्मित है। और मन विरोधियों के मिलन को बरदाश्त नहीं कर पाता। यहां जीवन
और मृत्यु दोनों साथ-साथ हैं, और मन दोनों को साथ-साथ समझ भी नहीं पाता, सोच भी नहीं पाता, विपरीत कैसे साथ हो सकते हैं? मन कहता है, विपरीत साथ नहीं हो सकते; विपरीत विपरीत हैं। और लाओत्से कहता है कि सारे कारबार में एक व्यवस्था है। विपरीत विपरीत हैं ही नहीं, सहयोगी हैं, कांप्लीमेंटरी हैं।
ये दो बातें अगर खयाल में रह जाएं कि जीवन को बेशर्त जीओ, और विपरीत को विपरीत मत मांनो, सहयोगी मानो, तो तुम मुक्त हो जाओगे। अगर तुमने विपरीत को विपरीत माना तो तुम चुनाव करोगे। तब तुम असाधु के खिलाफ साधु बनोगे। तब तुम आधे रहोगे। और आधा जीवन कोई जीवन है? असाधु कहां जाएगा तुम्हारा फिर? वह . बोझ की तरह तुम्हारे ऊपर लटका रहेगा। काट थोड़े ही सकते हो! क्योंकि जीवन की व्यवस्था यह है कि तुम साधु असाधु दोनों हो; जैसे बाएं और दाएं पैर की जरूरत है चलने के लिए।
अब कहीं कोई अगर धर्म पैदा हो जाए जो कहे कि बायां पैर बुरा और दायां पैर अच्छा और ऐसे लोग हैं, बाएं हाथ को बुरा मानते हैं; दायां अच्छा और बायां बुरा-तो तुम बाएं पैर का करोगे क्या? बाएं के बिना चलोगे कैसे? अगर बाएं को काट डाला तो चल न पाओगे। और अगर बाएं को बांध दिया तो घिसटोगे।
तुमने बच्चों का खेल देखा है, लंगड़ी दौड़। वही तुम्हारा पूरा जीवन। उसमें दो बच्चे एक-एक टांग बांध लेते हैं। तो तीन टांगें हो जाती हैं चार की जगह। और फिर वे दौड़ते हैं। तुम्हारा जीवन एक लंगड़ी दौड़ है जिसमें तुमने एक टांग को समाज की टांग से बांध लिया है, और फिर दौड़ने की कोशिश कर रहे हो। सभ्यता की टांग से बांध लिया है, फिर दौड़ने की कोशिश कर रहे हो। कहीं नहीं पहुंचते। जहां थे वहीं मरते हो। जहां पाया था अपने को जन्म के क्षण, वहीं तुम पाओगे मरते वक्त। रत्ती भर यात्रा नहीं हुई। पैर तुम्हारे मुक्त ही नहीं हैं।
विपरीत सहयोगी हैं। इसलिए लाओत्से साधु का पक्षपाती नहीं है। मैं भी नहीं हूं। और संत हम उस आदमी को कहते हैं जिसने अपनी साधुता और असाधुता में संगीत खोज लिया, जिसने असाधुता का भी उपयोग कर लिया,
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